- धर्मान्तरण का विरोध न करना भारी पड़ गया सभी प्रत्याशियों को
- बस्तर के मतदाताओं ने नहीं, आस्था ने हराया कांग्रेस को
अर्जुन झा
जगदलपुर बस्तर संभाग में कांग्रेस चुनाव नहीं, बल्कि धर्म युद्ध में हारी है। कांग्रेस के आला नेताओं द्वारा बस्तर में चल रहे धर्मान्तरण का विरोध न करने की कीमत पार्टी के प्रत्याशियों चुकानी पड़ी है। वहीं धर्म के नाम पर राजनीति करने वाली भाजपा यह युद्ध जीत गई। तथाकथित सेक्युलरिज्म के नाम पर विपक्षी गठबंधन के नेताओं द्वारा सत्य -सनातन का अपमान करना भी कांग्रेस को भारी पड़ा है। धर्म निरपेक्षता का मतलब यह नहीं कि अन्य धर्म मजहबों का सम्मान कर एक धर्म विशेष के खिलाफ जहर उगलते रहो। यही भूल कांग्रेस समेत तमाम विपक्षी दलों के नेताओं ने की है। यही वजह है कि कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों पर हिंदू विरोधी होने का तमगा लग गया है।
छत्तीसगढ़ के बस्तर संभाग अंतर्गत नारायणपुर, बस्तर, कोंडागांव, सुकमा, कांकेर, दंतेवाड़ा, बीजापुर सरगुजा जिलों के साथ ही जशपुर, रायगढ़, सरगुजा, अंबिकापुर, कोरबा, धमतरी, राजनांदगांव, मोहला, मानपुर, अंबागढ़ चौकी, कवर्धा, एमसीबी आदि जिलों में भी धर्मान्तरण का खेल लंबे समय से चल रहा है। भाजपा का आरोप है कि कांग्रेस के सत्ता में आने के बाद छत्तीसगढ़ में धर्मान्तरण को बहुत ज्यादा प्रश्रय मिला है। भाजपा के दिवंगत नेता दिलीप सिंह जूदेव मुखर होकर धर्मान्तरण का विरोध करते और घर वापसी अभियान चलाते रहे। उनकी यह मुहिम आदिवासी बहुल क्षेत्रों में भाजपा की जड़ें मजबूत करने में सहायक रही। बस्तर में भी कई भाजपा नेता गाहे बगाहे ऐसा ही करते रहे हैं। बस्तर और नारायणपुर जिलों में धर्मान्तरण के खिलाफ आदिवासी समुदाय में अंतर विरोध और संघर्ष की स्थिति निर्मित होती रही है। मूल आदिवासी समुदाय के लोग और उनके समाज प्रमुख धर्मान्तरित आदिवासियों के रीति रिवाजों खासकर अंतिम संस्कार को लेकर विरोध करते रहे हैं। धर्म परिवर्तन कर चुके आदिवासी परिवारों के मृत सदस्यों के अंतिम संस्कार के दौरान कई बार तनावपूर्ण स्थिति भी बस्तर में निर्मित हो चुकी है। कई मामले ऐसे भी आए जबकि पुलिस और प्रशासन के वरिष्ठ अफसरों की मौजूदगी में शवों का अंतिम संस्कार संपन्न कराने की नौबत आन पड़ी थी। आदिवासियों के इस अंदरूनी मामले में भाजपा से जुड़े आदिवासी नेता भी कूद पड़े।
फायरब्रांड नेता बन गए केदार कश्यप
नारायणपुर जिले में भाजपा नेता केदार कश्यप और उनके अग्रज दिनेश कश्यप धर्मान्तरण का शुरू से पुरजोर विरोध करते रहे हैं। इस विरोध ने केदार कश्यप की पहचान फायर ब्रांड नेता के रूप में स्थापित कर दी। केदार कश्यप और दिनेश कश्यप के इस तेवर का नतीजा यह हुआ कि आदिवासियों का एक बड़ा तबका उनके साथ हो लिया। वहीं सत्तरुढ़ रही कांग्रेस पार्टी के कई बड़े जिम्मेदार नेता, यहां तक कि मंत्री भी ताल ठोंककर दावा करते थे कि छत्तीसगढ़ में धर्मान्तरण का एक भी मामला नहीं हुआ है। यह बात उन आदिवासियों को नागवार गुजरी, जो अपनी बिरादरी के लोगों के दूसरे धर्म में चले जाने से दुखी रहे हैं। यह नागवारी कांग्रेस के लिए दुश्वारी बन गई। सामाजिक अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे आदिवासी समुदाय को कांग्रेस से ऐसी उम्मीद तो नहीं थी। आदिवासियों को नाउम्मीद कर कांग्रेस बड़ी भूल कर बैठी और अपनी उम्मीदों पर उसने खुद पानी फेर डाला। बस्तर के आदिवासी अपनी बिरादरी के लोगों के दूसरे धर्म में पलायन से बड़े दुखी रहे हैं। धर्मान्तरण के कारण सामाजिक अस्तित्व को बचाए रखने की चिंता में पड़े आदिवासियों को केदार कश्यप, दिनेश कश्यप और भाजपा में उम्मीद की किरण नजर आई। कश्यप बंधु चुनाव के कई साल पहले से ही धर्मान्तरण के विरोध में आदिवासियों को लामबंद करने में लग गए थे। इसलिए नहीं कि वे भाजपाई हैं, बल्कि इसलिए कि वे स्वयं भी आदिवासी हैं। अपनी बिरादरी के लोगों को मूल धर्म से विमुख होने से बचाने की चिंता करना केदार कश्यप और दिनेश कश्यप के लिए लाजिमी था। उन्होंने धर्मान्तरण का विरोध करके अपना सामाजिक धर्म ही नहीं निभाया है, बल्कि ‘राज -धर्म’ भी निभाया है। इस धर्म युद्ध में कश्यप बंधु और आदिवासी समुदाय के अन्य प्रमुख जीत की ओर लगातार बढ़ते चले गए। जो आदिवासी पहले कांग्रेस के समर्थक रहे, वे भी कांग्रेस से दामन झटकने लगे।
एक तीर से साध लिए कई निशाने
केदार कश्यप और दिनेश कश्यप ने एक तीर से कई निशाने साध लिए। एक तो अपने समाज के लोगों को भटकने से बचाने में वे कामयाब रहे, दूसरा यह कि आदिवासी बिरादरी को कांग्रेस से विमुख करने में सफल रहे और तीसरा यह कि उन्होंने अपने निर्वाचन क्षेत्र नारायणपुर के साथ ही पूरे बस्तर में कांग्रेस के आदिवासी वोट बैंक में बड़ी सेंध लगाकर भाजपा का वोट बैंक और जनाधार काफी बढ़ा लिया। इसकी परिणति नारायणपुर, जगदलपुर, चित्रकोट, कांकेर, दंतेवाड़ा, कोंडागांव, अंतागढ़, केशकाल विधानसभा सीटों पर भाजपा की बंपर जीत के रूप में हुई। बस्तर संभाग की बारह में से चार सीटें ही कांग्रेस बचा पाई। वहीं कांग्रेस के जो आदिवासी नेता विधानसभा जीतने में कामयाब रहे हैं, उन्हें कम मार्जिन से विजय मिली है। बस्तर संभाग की एकमात्र सामान्य विधानसभा सीट पर भी कांग्रेस उम्मीदवार जतिन जायसवाल की अपेक्षा भाजपा प्रत्याशी किरण देव को आदिवासी समुदाय के वोट थोक में मिले हैं। चित्रकोट, दंतेवाड़ा, अंतागढ़, कांकेर, कोंडागांव, केशकाल सीटों पर भी इस धर्म युद्ध की झलक साफ दिखाई दी है।
संस्कार बचाने की थी दरकार
कहते हैं कि जो व्यक्ति या समुदाय अपने संस्कारों से विमुख हो जाता है, वह पूरी बिरादरी के लिए संकट पैदा कर देता है। पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार ने आदिवासियों की संस्कृति, आस्था स्थलों और पर्व -परंपराओं के संरक्षण एवं संवर्धन के लिए बहुतेरे जतन किए। करोड़ों रुपए खर्च कर बस्तर संभाग के गांव – गांव में आदिवासियों के पूजा स्थल देवगुड़ी व मातागुड़ियों का जीर्णोद्धार और नई गुड़ियों का निर्माण कराया गया। देव स्थलों के पुजारियों, मोहरियों, बजनियों, सिरहा, गुनिया को मानदेय देने की परिपाटी शुरू की गई। वनभूमि पर निर्मित देवगुड़ियों और मातागुड़ियों के लिए जमीन के अधिकार पत्र जारी किए गए। घोटुलों को पुनर्जिवित किया गया। आदिवासी तीज त्योहारों के आयोजन के लिए अनुदान दिया गया। मगर जिस काम की दरकार थी वह काम नहीं कर पाई कांग्रेस की सरकार। दरअसल आदिवासियों को उनके मूल धर्म से जोड़े रखने के लिए उनमें हो रहे संस्कृति के पराभव को रोकने के लिए उपाय करने थे, जो कांग्रेस की सरकार नहीं कर पाई। बस्तर संभाग में हल्बा, हल्बी, गोंड़, राजगोंड़, भतरा, भतरी, समेत अनेक जातियां आदिवासी समुदाय में समाहित हैं। इन सभी की संस्कृति और संस्कार, रीति रिवाज बड़े ही समृद्ध एवं विशिष्ट हैं। धर्म परिवर्तन के साथ ही संस्कार भी भी बदल जाते हैं। ऐसा ही बस्तर के धर्मान्तरित आदिवासियों के साथ भी हुआ है।
उनका ‘जहर’ भाजपा के लिए अमृत
देशभर के लगभग ढाई दर्जन विपक्षी दलों ने भाजपा के खिलाफ इंडिया गठबंधन खड़ा तो कर लिया, मगर देश की जनता से वे गठबंधन नहीं कर पाए। गठबंधन तैयार होते ही उसमें शामिल कांग्रेस, राष्ट्रीय जनता दल, जनता दल यूनाइटेड, समाजवादी पार्टी, एडीआईएमके, कम्युनिस्ट व अन्य दलों के नेताओं में हिदुत्व और सनातन धर्म के खिलाफ जहर उगलने की होड़ सी मच गई। कोई सनातन के विनाश की बात कहने लगा, कोई हिंदू और हिदुत्व की अनाप शनाप व्याख्या करने लगा, कोई मंदिर जाने वालों को लड़की छेड़ने वाला बताने लगा तो कोई रामचरित मानस की चौपाइयों की गलत व्याख्या कर सनातन धर्म का अपमान करने लगा। नेताओं द्वारा उगला जाने वाला यह जहर भाजपा के लिए राजनीतिक अमृत बन गया। सनातन और हिंदुत्व पर आस्था रखने वाले लोग ‘मोहब्बत की दुकान’ से उकता गए और उन्हें भाजपा में ही आस दिखने लगी। तीन हिंदी भाषी राज्यों में इसका प्रभाव भी सामने आ गया।