जुबां पे दर्द भरी दास्तां चली आई…पुनिया और नेताम समझें कि वक्त बदल चुका है

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अर्जुन झा

जगदलपुर। बस्तर के नगरनार स्टील प्लांट के डी मर्जर को लेकर भूमकल आंदोलन की याद ताजा करने वाले कांग्रेसी नेताओं को अब इस आंदोलन की वर्षगांठ के मौके पर बोधघाट परियोजना के विरोध में सातधारा में आदिवासियों के जमावड़े की खबर से सतर्क हो जाना चाहिए। बोधघाट परियोजना को लेकर जबरदस्त राजनीति शुरु हो गई है। कांग्रेस में भी इस मामले को लेकर एकराय नहीं है। पहले इस मामले में बस्तर सांसद की भूमिका चर्चा में आई थी। खबर है कि वे एक खास मौके पर बोधघाट परियोजना से आशंकित लोगों के साथ ही कुछ विधायकों को भी कथित तौर पर बिना पूर्व सूचना के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल से मिलवाने तत्पर हो गए थे, जिस पर सीएम की नाराजगी की खबरें सामने आई थीं।

लेकिन उसके बाद मामला शांत हो गया और फिर बोधघाट परियोजना को लेकर सवाल उठाने पर मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने पूर्व केंद्रीय मंत्री और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता अरविंद नेताम को उनके दिन लद जाने जैसा अहसास कराते हुए कहा था कि नेताम जी अपनी पारी खेल चुके हैं अब दीपक बैज और राजमन बेंजाम को खेलने दें। उन्होंने बोधघाट परियोजना के फायदे के संदर्भ में यह भी कहा था कि इससे सिंचाई होगी तो सभी आदिवासियों की आर्थिक स्थिति नेताम जी जैसी हो जाएगी। बोधघाट परियोजना को लेकर कांग्रेस के भीतर मतभेद को नेताम और मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के बीच की सियासी तल्खी ने उजागर कर दिया है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि बोधघाट परियोजना से सिंचाई होगी तो बस्तर अंचल के किसानों को इसका फायदा होगा लेकिन इस तरह की योजनाओं को लेकर डूब क्षेत्र के नाम पर राजनीति कोई नई बात नहीं है। जमीन डूब क्षेत्र में आ जाने की चिंता के नाम पर राजनीति होती ही है।

ऐसे मामलों में विरोध का एक लम्बा इतिहास है। जबकि डूब से प्रभावित लोगों को उचित मुआवजा देने की व्यवस्था होती है। बड़े फायदे के लिए छोटी चिंताओं को सुलझाया जा सकता है। ऐसा होता भी है किंतु विरोध की राजनीति के पीछे भी जो कारण होते हैं, उन्हें समझते हुए आशंकाओं का शीघ्र समाधान कर लेना चाहिए। अब बोधघाट परियोजना को लेकर कांग्रेस के भीतर के मतभेद, संभावित प्रभावितों की लामबंदी, मुख्यमंत्री भूपेश बघेल और पूर्व केंद्रीय मंत्री नेताम के बीच की बयानबाजी के दौर में नेताम की छत्तीसगढ़ कांग्रेस प्रभारी पीएल पुनिया से एकांत वार्ता से सियासी सरगर्मी तेज हो गई है। संगठन के लिहाज से देखा जाए तो हालात काफी बदल चुके हैं। बात इशारों में न कहकर साफ तौर पर की जाय तो मुख्यमंत्री भूपेश बघेल अपनी सक्रियता और लोकप्रियता के बूते इतने आगे निकल चुके हैं कि ऐसी मुलाकातों से कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। मगर संगठन में अपनी बात रखने का सभी को हक है तो इस बाबत कहा जा सकता है कि इस मुलाकात में नेताम ने पुनिया से जो भी बात की है, वह तथ्यों की कसौटी पर आख़िर कितनी खरी उतर सकती है? सीएम बघेल तो नेताम को पहले ही उनकी स्थिति के बारे में समझाने की कोशिश कर चुके हैं। नेताम जी को कितना समझ आया, यह अलग बात है। वैसे उन्हें उस जमाने को याद करना चाहिए, जब विद्याचरण शुक्ल जैसे वरिष्ठ नेता की दर्द भरी आवाज आला चौखट से ही बैरंग लौट आती थी। राजनीति में भी उगते सूरज को प्रणाम, तेजस्वी सूरज को सलाम और डूबते सूरज को राम राम का रिवाज चलता है। वैसे नेताम जी इस हाल में भी सियासी संघर्ष का माद्दा दिखा रहे हैं तो आज के दौर के राजनीतिक अंदाज अपनाएं तो बेहतर होगा। जहां तालमेल से काम चल जाय, वहां टकराव की जरूरत क्या है?