यूपी चुनाव बसाए रखेगा भूपेश बघेल का गांव…अब भूल जाओ ढाई ढाई साल का सवाल

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अर्जुन झा

छत्तीसगढ़ की राजनीति में उथल पुथल मचाने वाला एक सवाल अक्सर उभर जाता है। मुख्यमंत्री पद के ढाई ढाई साल के फार्मूले की कहीं कोई जमीनी हलचल न होने के बावजूद इस मुद्दे पर तब तब सवाल खड़ा होता रहता है, जब दिल्ली से कोई कांग्रेसी दिग्गज छत्तीसगढ़ आता है अथवा यहाँ से दिल्ली जाकर कोई वापस आता है। हर बार जवाब मिल जाता है कि ऐसा कुछ भी नहीं है। मगर यह सवाल पूछने का दौर थमने का नाम नहीं ले रहा। अभी सीएम बघेल दिल्ली का दिल जीत कर लौटे तो फिर सवाल दाग दिया गया। उन्होंने भी जवाब दोहरा दिया कि आला कमान ने मुख्यमंत्री बनाया। उसके कहने पर हट जायेंगे। वैसे भूपेश बघेल आधा कार्यकाल गुजार चुके हैं। अगर आधे आधे कार्यकाल का कोई फार्मूला होता तो परिवर्तन के संकेत पहले से ही मिलने लगते। लेकिन ऐसा कुछ है, यह मानने वालों का मन मानने को तैयार ही नहीं होता! कुछ रोज पहले कांग्रेस के छत्तीसगढ़ प्रभारी पीएल पुनिया इस सवाल का पूरा जवाब दे गए थे लेकिन अब दिल्ली से लौटने पर सीएम बघेल से फिर वही सवाल! ऐसा लगा कि छत्तीसगढ़ में कार्यकाल के बंटवारे का सवाल फिल्म बाहुबली को लेकर चर्चित सवाल जैसा हो गया है कि बाहुबली को कट्टप्पा ने क्यों मारा! इसका जवाब भी बहुचर्चित है तो कहने की कोई आवश्यकता नहीं। यहां न कोई कट्टप्पा है, न कोई और किरदार। सियासत में बाहुबली को तब तक कोई दिक्कत नहीं होती, जब तक कि वह बलशाली है और उस पर ऊपर वाले की छत्रछाया है। वैसे राजनीति घोर तपस्या की तरह है। तनिक भी ध्यान भंग हुआ तो गड़बड़ हो सकती है। लिहाजा हर पल सतर्क रहना होता है और अपनी स्थिति मजबूत करते रहना पड़ता है।

छत्तीसगढ़ में सत्ता की राजनीति में पंजाब, राजस्थान और मध्यप्रदेश की तरह खुलकर न सही, किंतु चुपके चुपके कुछ कुछ होता रहता है। यहां कांग्रेस एकतरफा बहुमत की सरकार चला रही है तो विपक्ष के पास कुछ करने के लिए नहीं है। वह तो अगले चुनाव की तैयारी ही कर सकता है। यदि विपक्ष मौजूदा समय में टक्कर देने की स्थिति में होता तो कांग्रेस के आला नेतृत्व को यहां से भी आंतरिक खींचतान से उत्पान्न सिरदर्द दूर करने कोई नुस्खा इस्तेमाल करना पड़ सकता था। मगर छत्तीसगढ़ की समझदार जनता ने परिवर्तन करते समय पक्का इंतजाम कर दिया कि सत्ता के किसी भी आंतरिक संघर्ष की स्थिति में जनता की पसंद पर कोई आंच न आने पाए। राजनीति संभावना का खेल है। इसमें कुछ भी असम्भव नहीं। बस अपने लक्ष्य पर एकाग्र चित्त होना पड़ता है। राजनीति महत्वाकांक्षाओं की मंडी है तो बाजार और व्यवसाय जैसे उतार चढ़ाव आते रहते हैं। इनसे बचते हुए मंदी में भी चांदी काट लेने का हुनर जो राजनीतिज्ञ जानता है, वह अपना राजपाट ठाठबाट सलामत रखने में कामयाब रहता है। राजनीति में ऐसे कई उदाहरण हैं। सबसे ताजातरीन बानगी पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी ने पेश की है। कई सारे अपनों के साथ छोड़ देने के बाबजूद चुनाव में शानदार जीत हासिल करना इसी सियासी चतुराई का अद्भुत नमूना है। वहां कांग्रेस का कागज कोरा क्यों रह गया, यह एक अलग मुद्दा है।

छत्तीसगढ़ में तो कांग्रेस की सियासी फसल ऐसी लहलहा रही है कि कीट पतंग का कोई खतरा ही नहीं। तब भी राजनीति में व्यक्तिगत अस्थिरता और स्थिरता पर केन्द्रित रहना जरूरी है। वरना बाप का उत्तराधिकार बेटा छीन लेता है तो कहीं चाचा अपने भतीजे के अरमां आंसुओं में बहा देता है और कहीं गुरु गुड़ और चेला कलाकंद बन जाता है। राजनीति की लीला निराली है। कोई किसी का मीत नहीं। तो, सेफ्टी फर्स्ट! शुक्र है कि यहां ऐसी कोई दिक्कत नहीं है लेकिन वक्त को अपने हाथ में पकड़ कर रखना जरूरी होता है तो छत्तीसगढ़ के मुख्य्मंत्री भूपेश बघेल इस बाबत बेहद संवेदनशील हैं। बिहार, झारखंड, असम में चुनावी ज़िम्मेदारी निभाने के बाद अब उन्होंने देश के सबसे बड़े राज्य में अगले साल होने वाले चुनाव की जिम्मेदारी मांगी है। उनके अनुरोध को अहमियत मिलना तय है। यानी अब तो ढाई ढाई साल का सवाल नहीं उठाया जाना चाहिए।

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