(अर्जुन झा)
छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्री और भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष डॉ. रमन सिंह ने प्रदेश भाजपा की कार्यसमिति की बैठक में जब कथित तौर पर तीन बार की जीत का भेद खोल दिया और यह बता दिया कि अब वोटों के बंटवारे के भरोसे नहीं जीत सकते तथा भाजपा की स्थिति ठीक नहीं है तो बेचैन भाजपा ने लीपापोती अभियान शुरू कर दिया। फटाफट फैसला हो गया कि भाजपा अगले साल होने वाले छत्तीसगढ़ विधानसभा के चुनाव में रमन सिंह के 15 साल के कामकाज को भी मुद्दा बनाएगी। लेकिन सवाल यह है कि क्या जब रमन सिंह के काम मुद्दे बन सकते हैं तो रमन सिंह का नाम मुद्दा क्यों नहीं बन सकता? भारतीय जनता पार्टी में इन दिनों अगले चुनाव के लिए कोई चेहरा सामने नहीं लाने का विचार चल रहा है। भाजपा की प्रदेश प्रभारी डी. पुरंदेश्वरी बार-बार कह रही हैं कि चुनाव में कोई चेहरा स्थानीय नहीं होगा बल्कि प्रधानमंत्री मोदी के नाम पर चुनाव लड़ेंगे। यहां तक तो समझ में आता है कि भाजपा अपने शीर्ष नेता नरेंद्र मोदी के नाम और काम के भरोसे चुनाव में उतरना चाहती है लेकिन जब रमन सिंह ने तीखे तेवर दिखा दिए तो भाजपा डैमेज कंट्रोल के लिए मजबूर हो गई। यह सत्य है कि लोकसभा चुनाव में मोदी के नाम पर राज्य की 11 में से 9 सीटों पर भाजपा ने जंग जीत ली। यदि छत्तीसगढ़ के नेताओं के भरोसे रहती तो बमुश्किल 1 या 2 सीट आ पाती।
लेकिन यह भी तो सत्य है कि मोदी के नाम पर राज्य के चुनाव में तब कितने वोट मिल सकते हैं, कितनी सीटें मिल सकती हैं, जब दूसरे छोर पर ठेठ छत्तीसगढ़िया राजनीति करने वाले मुख्यमंत्री भूपेश बघेल खड़े हों? क्या भाजपा यहां भूपेश बघेल के मुकाबले राज्य के चुनाव में मोदी के नाम और काम को खड़ा करेगी? भाजपा ने 2003 में हुए छत्तीसगढ़ के पहले चुनाव में सामूहिक नेतृत्व का दांव चला था , जो कांग्रेस की आपसी फूट की वजह से कारगर सिद्ध हुआ।स्वयं रमन सिंह इस तथ्य को स्वीकार कर चुके हैं कि 2003, 2008 और 2013 में भाजपा किन कारणों से जीती और अब किस वजह से भाजपा की स्थिति ठीक नहीं है। जब भाजपा को ऐसा लगा कि रमन सिंह के बयान से भाजपा की रही सही संभावनाएं खत्म हो गई हैं अथवा खत्म हो सकती हैं तो रमन सरकार के काम की याद आ गई। यदि भाजपा को अपने 15 साल के शासनकाल में रमन सिंह के कामकाज का एहसास था तो पहला सवाल यह है कि वर्ष 2018 के चुनाव में भाजपा को करारी शिकस्त क्यों मिली? दूसरा सवाल यह है कि यदि भाजपा रमन सिंह के काम को भी सामने रखना चाहती है तो फिर उनके नाम से परहेज क्यों है? तीसरा सवाल यह है कि यदि रमन सिंह के कामकाज की तुलना भाजपा भूपेश बघेल के कामकाज से करना चाहती है तो यह विचार पहले क्यों नहीं आया? चौथा सवाल यह है कि भाजपा आखिर रमन के काम को अब महत्व देना चाहती है तो उनके नाम और चेहरे को अहमियत क्यों नहीं देना चाहती? पांचवा सवाल यह है कि यदि रमन सिंह के नेतृत्व में छत्तीसगढ़ में हुए कामकाज पर भाजपा को भरोसा है तो वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर निर्भर क्यों रहना चाहती है? छठवां सवाल यह है कि अब तक चेहरे की तनातनी में रमन सिंह उपेक्षित क्यों थे? सातवां सवाल यह है कि भाजपा सामूहिक नेतृत्व में राज्य के किन किन नेताओं को शामिल करना चाहती है? आठवां सवाल यह है कि ऐसे नेता जनता के बीच में कितने स्वीकार्य हैं? नवा सवाल यह है कि यदि भाजपा सामूहिक नेतृत्व में अगला चुनाव लड़ती है और मोदी का चेहरा सामने रखती है तो जीत की क्या गारंटी है? हार की जिम्मेदारी किसकी होगी? 10 वां और सबसे अहम सवाल यह है कि भाजपा मुख्यमंत्री भूपेश बघेल का मुकाबला करने के लिए आखिर कोई एक तयशुदा रणनीति तैयार क्यों नहीं कर पा रही है? इधर कांग्रेस पूर्व मुख्यमंत्री रमन सिंह के बयान पर यह मान सकती है कि चुनाव के डेढ़ साल पहले ही भाजपा में वह कलह मच गई है जो 2003, 2008 और 2013 में कांग्रेस में थी। कांग्रेस ने 2018 में उस आत्मघाती कमजोरी को दूर कर लिया मगर भाजपा अब ऐसी ही स्थितियों के दौर से गुजर रही है तो इससे कैसे उबरेगी? आखिर में इस पर भी भाजपा को आत्मावलोकन कर लेना चाहिए कि यदि रमनराज से जनता संतुष्ट थी तो यह नौबत क्यों आई??