- भाजपा के मुकाबले कांग्रेस का घोषणा पत्र रहा बीस, फिर भी जनता ने नहीं दिया साथ
- चंद बड़े नेताओं की स्वार्थ लिप्सा ले डूबी पार्टी को
अर्जुन झा
जगदलपुर चुनावों के पूर्व और चुनावी प्रक्रिया जारी रहने के दौरान छत्तीसगढ़ में बयार कांग्रेस के पक्ष में ही बहती नजर आ रही थी, लेकिन ऐसी कौन सी वजहें थीं कि कांग्रेस को करारी हार का सामना करना पड़ गया? इस सवाल की तह तक जाने पर कई रहस्ययों पर से पर्दा उठ जाता है। प्रमुख वजह रही कांग्रेस के शीर्ष नेताओं की एक दूसरे को निपटाने की प्रवृत्ति। इसी प्रवृत्ति ने प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष दीपक बैज, पूर्व उप मुख्यमंत्री टीएस सिंहदेव, पूर्व मंत्री ताम्रध्वज साहू, रविंद्र चौबे, मो. अकबर जैसे धाकड़ नेताओं को हरा दिया। इसके पीछे कौन था, इन नेताओं के उभरने से कांग्रेस के किस नेता को अपने अस्तित्व का खतरा था, इन मसलों पर पार्टी नेतृत्व को न सिर्फ मंथन करना होगा, बल्कि कड़े एक्शन भी लेने होंगे। अन्यथा 2024 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस को भारी नुकसान उठाना पड़ सकता है।
छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनावों के नतीजे अप्रत्याशित ही नहीं रहे, वरन राजनीति के जानकारों के होश फाख्ता करने वाले भी साबित हुए हैं। निवर्तमान भूपेश बघेल सरकार ने जनता की भलाई के लिए बेहतरीन काम किए, इस बात में शक की कोई गुंजाईश ही नहीं है। किसानों, मजदूरों, महिलाओं, युवाओं, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों समेत सभी वर्गों के हित संवर्धन के लिए ठोस योजनाओं को भूपेश बघेल सरकार ने जमीन पर उतारा था। भूपेश बघेल युवाओं के बीच कका के रूप में प्रतिष्ठित हो गए थे। छत्तीसगढ़ में ‘भूपेश है, तो भरोसा है’ और ‘कका जिंदा हे’ जैसे नारे प्रचलन में आ गए थे। किसान उपज की पर्याप्त कीमत और अंतर राशि मिलने तथा कर्जमाफी से खुश थे। ग्रामीण औद्योगिक पार्को के जरिए उद्यमी बनकर महिलाएं आत्मनिर्भरता की ओर अग्रसर हो रही थीं और उमंग से भरी थीं। ढाई हजार रु. महीना बेजगारी भत्ता पाकर युवा उत्साहित थे। चार हजार रु. प्रति मानक बोरा की दर से पारिश्रमिक पाकर तेंदूपत्ता श्रमिक आल्हादित थे। महुआ, ईमली समेत तमाम वनोपजों की खरीदी पर्याप्त समर्थन मूल्य पर की जाने और वनभूमि पर काबिज लोगों व निर्मित देव स्थलों को वन अधिकार पट्टे दिए जाने से जंगलों के रखवाले आदिवासी एवं वनवासी उल्लसित थे। भूपेश राज में अल्पसंख्यक समुदाय के लोग निर्भय होकर जीवन यापन कर रहे थे। यही वजह है कि चुनावों की अधिसूचना जारी होने के पहले तक छत्तीसगढ़ में बस्तर से लेकर कवर्धा और अंबिकापुर तक और राजनांदगांव से लेकर रायगढ़, सरगुजा व कोरबा तक और मोहला, मानपुर, अंबागढ़ चौकी से लेकर जशपुर, जांजगीर तक सिर्फ और सिर्फ कांग्रेस का जोर और शोर नजर आ रहा था। चुनावों के दौरान भी चारों ओर कांग्रेस का शोर सुनाई दे रहा था। कांग्रेस प्रत्याशियों के पक्ष में चुनाव प्रचार करने पहुंचे कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे, पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी और राष्ट्रीय महासचिव प्रियंका गांधी की चुनावी सभाओं में उमड़ी भीड़ भी इस बात की तस्दीक करती थी कि छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की ही लहर है। बस्तर संभाग के जगदलपुर और कांकेर में हुई राहुल गांधी व प्रियंका गांधी की सभाओं में ऐतिहासिक भीड़ देखने को मिली थी। बस्तर की ही धरती से राहुल गांधी ने तेंदूपत्ता की खरीदी 6 हजार रु. प्रति मानक बोरा की दर से करने और हर तेंदूपत्ता श्रमिक परिवार को सालाना चार हजार रु. बतौर बोनस देने की घोषणा की थी। इसकी गूंज सुकमा, कांकेर, कोंडागांव, राजनांदगांव, मोहला मानपुर, अंबागढ़ चौकी, खैरागढ़, कवर्धा, धमतरी, बालोद, सरगुजा, रायगढ़ आदि तेंदूपत्ता उत्पादक जिलों तक पहुंची थी।
कमतर नहीं था कांग्रेस का घोषणा पत्र
कांग्रेस का चुनावी घोषणा पत्र भाजपा के घोषणा पत्र के मुकाबले जरा भी कमजोर नहीं था, बल्कि भाजपा पर भारी पड़ता प्रतीत हो रहा था। कांग्रेस के घोषणा पत्र में किसानों की कर्जमाफी के साथ ही धान का समर्थन मूल्य 32 सौ रुपए प्रति क्विंटल देने और प्रति एकड़ बीस क्विंटल के मान से धान की खरीदी करने की बात कही गई थी। वहीं भाजपा ने 31 सौ रु. की दर से धान खरीदने की गारंटी दी थी। यानि कांग्रेस धान का मूल्य भाजपा की अपेक्षा 100 रु. ज्यादा देने वाली थी, फिर भी किसानों ने भूपेश और कांग्रेस पर भरोसा क्यों नहीं किया ? उन्होंने मोदी की गारंटी पर ज्यादा यकीन क्यों किया? कांग्रेस की अन्य घोषणाएं भी बीस ही साबित हो रही थीं। बावजूद आम मतदाताओं ने कांग्रेस को क्यों नकार दिया? तेंदूपत्ता श्रमिक भारी भरकम पारिश्रमिक और बोनस राशि से क्यों प्रभावित नहीं हुए? केजी से पीजी तक मुफ्त शिक्षा की घोषणा गरीब पालकों और उनकी युवा संतानों को आकर्षित क्यों नहीं कर पाई? मुफ्त ईलाज, दो सौ यूनिट तक मुफ्त बिजली देने का वादा उपभोक्ताओं को क्यों लुभा नहीं पाया? ये तमाम सवाल कांग्रेस को आत्म मंथन के लिए बाध्य कर रहे हैं।
आखिर कौन है कांग्रेस का वह पनौती?
अपनी ठोस और लोक लुभावन घोषणाओं के बावजूद कांग्रेस जनता जानार्दन का दिल जीत नहीं पाई। सरकार में रहते कांग्रेस द्वारा असाधारण काम किए जाने और अगले कार्यकाल के लिए मजबूत इरादों के साथ उतरने के बावजूद मतदाताओं ने कांग्रेस को नकार दिया। कका जिंदा हे, भूपेश है, तो भरोसा है, अबकी बार 75 पार जैसे नारे काफूर हो गए। इससे मन में सवाल उठता है कि कांग्रेस के लिए आखिर पनौती कौन साबित हुआ? जाहिर सी बात है कि यह पनौती कांग्रेस के अंदर ही है। दरअसल कांग्रेस की सबसे बुरी बात यह है कि इस पार्टी के नेता अपनी ही पार्टी के किसी दूसरे नेता को आगे बढ़ते देखना तक फूटी आंख भी पसंद नहीं करते। अपनी लकीर बड़ी करने के बजाय ये नेता सामने वाले की लकीर को मिटाने पर ज्यादा ध्यान देते हैं। कांग्रेस नेताओं में स्वार्थ लिप्सा इस कदर हावी हो चुकी है कि वे पार्टी हित की चिंता छोड़ स्व हित की चिंता में ज्यादा घुलते रहते हैं। इसी वजह से वे एक दूसरे की टांग खिंचाई में सारी ऊर्जा खपा देते हैं। अपना पार्टी के भीतर और सत्ता में अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए कांग्रेस के कुछ नेता किसी भी हद तक जा सकते हैं। यही नेता कांग्रेस के लिए पनौती साबित हो रहे हैं।
बड़े नेताओं को हराने की सुपारी..!
सूत्रों के मुताबिक प्रदेश के ही कांग्रेस के एक बड़े नेता ने राज्य के कई उभरते नेताओं को हराने के लिए अपने चंद खास नेताओं को सुपारी दे रखी थी। इन्हीं सुपारी किलर्स ने प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष दीपक बैज, मुख्यमंत्री पद के प्रबल दावेदार रहे वरिष्ठ नेता टीएस सिंहदेव, पूर्व मंत्री ताम्रध्वज साहू, मो. अकबर, अमरजीत भगत, मोहन मरकाम सरीखे धाकड़ नेताओं को हराने में अहम भूमिका निभाई है। सूत्र तो यहां तक दावा कर रहे हैं कि प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष दीपक बैज को बस्तर जिले की चित्रकोट विधानसभा सीट से हराने के लिए बस्तर संभाग से ही आने वाले एक मंत्री और तथा मंडल, निगम व प्राधिकरण में पदों पर आसीन रहे दो नेताओं, एक पूर्व विधायक व कांग्रेस के एक जिला अध्यक्ष को जिम्मेदारी दी गई थी। इन लोगों ने अपने आका के फरमान पर अमल करते हुए दीपक बैज की विजय यात्रा पर विराम लगाने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा दिया था। ऐसा ही हथियार टीएस सिंहदेव समेत प्रदेश की अन्य सीटों से चुनाव लड़ रहे कांग्रेस के अन्य नेताओं के खिलाफ भी इस्तेमाल किया गया। यदि ये नेता जीत जाते तो कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व की नजरों में उनका महत्व बढ़ जाता, सीएम पद के लिए आदिवासी, अल्पसंख्यक, अनुसूचित जाति, ओबीसी व सामान्य वर्ग से कई दावेदार सामने आ जाते। झीरम घाटी नक्सली नर संहार में वरिष्ठ कांग्रेस नेताओं का मारा जाना भी संभवतः इसी वर्चस्व की लड़ाई का अंजाम रहा होगा।