छत्तीसगढ़ के राजनीतिक गलियारे में एक जुमला इन दिनों काफी हिट हो रहा है। बस्तर से लेकर राजधानी रायपुर तक में इस जुमले की अनुगूंज सहज ही सुनी जा सकती है । जुमले कि बानगी देखिये – “दे दिस सब ला चकमा , आई लव यू कवासी लखमा।”
बस्तर के कोंटा विधानसभा क्षेत्र से लगातार पांच बार विधानसभा का चुनाव जीतने वाले कवासी लखमा एकमात्र ऐसे आदिवासी नेता हैं जिनके जनाधार को लेकर राजनैतिक पंडित भी अचंभे में पड़ जाते हैं। अशिक्षित होने के वावजूद उन्होंने पढ़े लिखे तेजतर्रार कम्युनिस्ट पार्टी के नेता एवं आदिवासी महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष मनीष कुंजाम को चुनाव में कई बार पराजित कर अपने क्षेत्र में एक नया चुनावी इतिहास गढ दिया है। लखमा की लोकप्रियता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है की “दादी” के नाम से वे सर्वत्र जाने पहचाने जाने लगे हैं। उनकी लोकप्रियता की एक और बानगी देखिये। राहुल गांधी जब बस्तर चुनाव प्रचार के लिए आए तब लोहंडीगुड़ा की एक जनसभा में मंच पर ही ठुमके लगाकर श्री लखमा ने समा बांध दिया था। मंच पर राहुल गांधी के होने के वावजूद भीड लखमा-लखमा के नारे लगा रही थी । दरअसल राहुल गांधी टाटा कंपनी के लिए अधिग्रहित आदिवासियों की भूमि उन्हें लौटाने आए थे। लिखने का आशय यह कि पढ़े लिखे नहीं होने के बावजूद जनता की नब्ज श्री लखमा अच्छी तरह से ताड़ लेते हैं। यही कारण है कि छत्तीसगढ़ में जब भारी बहुमत के साथ कांग्रेस पार्टी की सत्ता में वापसी हुई तब श्री लखमा भूपेश बघेल की सरकार में बतौर कैबिनेट मंत्री शामिल कर लिए गए।उन्हे आबकारी और उद्योग जैसा विभाग भी मिला। इस दौड़ में बस्तर के कई नेता शामिल थे किंतु उन्होंने सबको पछाड़ अपने राजनैतिक कौशल से मंत्री पद हासिल कर लिया। हालांकि पर्दे के पीछे आदिवासी समाज के कुछ राजनेता उन्हें मुख्यमंत्री पद का प्रलोभन देकर विवादों में घसीटना चाह रहे थे। लेकिन श्री लखमा ने बड़ी चतुराई के साथ सबको पीछे छोड़ स्वंय आगे बढ़ गए। पिछले सप्ताह उनकी काबिलियत को देखते हुए राज्य सरकार ने बस्तर के पांच जिलों का प्रभारी मंत्री भी बना दिया है।
राजकाज चलाने के लिए क्या शिक्षा मायने नहीं रखती है ? यदि मंत्री कवासी लखमा के व्यक्तित्व को सामने रखा जाए तो इसका उत्तर आसानी से दिया जा सकता है। कवासी लखमा के पहले अविभाजित मध्यप्रदेश में रामा कोंदा नाम के एक विधायक हुआ करते थे। वे भी पढे-लिखे नहीं थे। रामा कोंदा बस्तर के चितरकोट विधानसभा क्षेत्र से विजयी हुए थे। श्री लखमा की तरह रामाकोंदा भी लोकप्रिय हुआ करते थे। अशिक्षा उनकी राजनीति में कभी बाधा नहीं बनी। पढ़े- लिखे नहीं होने के बावजूद वे अपने क्षेत्र के नागरिकों से उनकी समस्याएं लिखवा कर लेना नहीं भूलते थे।इतना ही नहीं लिखी हुई शिकायतें लेकर वे कलेक्टर और एसपी जैसे अफसरों के पास जा धमकते थे।कई दफा तो जनता की समस्याओं का निदान कराए बगैर अफसरों के चेंबर से रामा कोंदा बाहर नहीं निकलते थे। वे समस्याओं को बीमारी की संज्ञा दिया करते थे। भले ही पीठ पीछे उनकी शैली का उपहास उड़ाया जाता हो किंतु उन्होंने ब्यूरोक्रेसी से कभी हार नहीं मानी। जनता के प्रति ऐसा ही समर्पण भाव मंत्री कवासी लखमा में भी देखा जा सकता है।
दक्षिण- पश्चिम बस्तर के नागारास नामक एक छोटे से गांव से मंत्री तक का सफर श्री लखमा के लिए नि:संदेह काफी चुनौतीपूर्ण रहा होगा। लेकिन जब वे विधायक भी नहीं थे तब भी अपने क्षेत्र के गांवों में काफी लोकप्रिय हुआ करते थे। इसी लोकप्रियता की वजह से वे सर्वप्रथम अपने ग्राम पंचायत के निर्विरोध सरपंच निर्वाचित हुए थे। उस जमाने में ना-ना प्रकार के छोटे-मोटे व्यापार श्री लखमा किया करते थे। व्यापार के कारण गांवों में उनकी जबरदस्त धाक और साख थी। पढ़े -लिखे नहीं थे लेकिन व्यापार के हिसाब- किताब में थे बडे पक्के। अनपढ़ हो कर भी व्यापार जैसे उनकी घुट्टियों में समाया हुआ था। यही कारण है कि गांव- गांव में उन्हें “खोटला सेठ” के नाम से भी जाना जाता है। बहरहाल बात चल रही थी “दादी” की लोकप्रियता की। लॉकडाउन में भी श्री लखमा ने अपनी लोकप्रियता पूर्ववत बनाए रखा। जैसे ही उन्होंने ऑनलाइन शराब की बिक्री कराने का फैसला किया वैसे ही उनके कई शुभचिंतक सकते में आ गए।लेकिन फैसला ठीक-ठाक निकला।अब दिल्ली सरकार ने भी शराब की ऑनलाइन बिक्री प्रारंभ कर दी है। यहां यह प्रश्न उठता है कि क्या कवासी लखमा अनपढ़ हो कर भी सबसे चतुर और लोकप्रिय आदिवासी नेता साबित हो रहे हैं ? इसके उत्तर के लिए हमें आदिवासी नेताओं के राजनीतिक इतिहास के पन्ने पलटने पड़ेगें।
अविभाजित मध्यप्रदेश में वसंतराव उइके सबसे दबंग आदिवासी नेता माने जाते थे। मंडला जिले के सिवनी क्षेत्र से चुनाव जीतने वाले वसंतराव को मध्य प्रदेश का जगजीवन राम माना जाता था। लेकिन वे मुख्यमंत्री की कुर्सी तक नहीं पहुंच पाए। सन् 1980 में शिव भानु सिंह सोलंकी मुख्यमंत्री की दौड़ में आगे निकल गए थे। राजनैतिक गलियारे में पकड़ रखने वालों का कहना है कि अर्जुन सिंह के सामने सबसे बड़ी चुनौती खरगोन से जीत कर आए शिव भानु सिंह सोलंकी ही थे। उस जमाने में दिल्ली से पर्यवेक्षक बनकर भोपाल प्रणव मुखर्जी आए थे। विधायकों की रायशुमारी में बहुमत शिव भानु सिंह सोलंकी के पक्ष में था। इसके बावजूद कांग्रेस हाईकमान ने अर्जुन सिंह को मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री की कुर्सी सौंपने का फैसला किया। आदिवासी नेताओं के पर कतरने का सिलसिला इसके बाद ही मध्यप्रदेश में प्रारंभ हुआ था जो आज भी निरंतर जारी है। सन् 1984 में डॉक्टर भंवर सिंह पोर्ते को विधानसभा की टिकट इसी वजह से गंवानी पड़ी थी। झुमुक लाल भेड़िया, वेद राम, टुमन लाल, अरविंद नेताम, दिलीपसिंह भूरिया ऐसे कई नाम हैं जो मुख्यमंत्री बनने की क्षमता रखते थे। लेकिन उन्हें प्रदेश में सत्ता की शीर्ष कुर्सी कभी नसीब नहीं हो पाई। छत्तीसगढ़ बनने के बाद महेंद्र कर्मा, अरविंद नेताम, बलीराम कश्यप, नंद कुमार साय, रामविचार नेताम, प्यारेलाल कंवर जैसे कुछ नाम थे जो मुख्यमंत्री बनने के काबिल थे। इन आदिवासी नेताओं की लोकप्रियता भी अच्छी थी और जनाधार भी। आदिवासी एक्सप्रेस पर सवार हो इन नेताओं में से कुछ ने पूरे छत्तीसगढ़ का दौरा भी किया था। यह बात दिगर है कि सब के सब अजीत जोगी जैसे नेता से मात खा गए। सन् 1980 में शिवभानु सिंह सोलंकी के साथ जो कुछ हुआ वही सन् 2000 में छत्तीसगढ़ के आदिवासी नेताओं के साथ घटित हुआ। वही पुरानी कहावत चरितार्थ हुई जिसमें इतिहास को दोहराने की दुहाई दी जाती है। वैसे आदिवासी बाहुल्य राज्य छत्तीसगढ़ में अब आदिवासी मुख्यमंत्री का मुद्दा नेपथ्य में चला गया है। कई आदिवासी नेता तक यह खुलकर स्वीकारने भी लगे हैं । इसी बीच कवासी लखमा जैसे तेजतर्रार आदिवासी नेता का उभर कर सामने आना आदिवासी समाज के मध्य उत्सुकता का बिषय बना हुआ है। यद्यपि बस्तर से ही कांग्रेस पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष मोहन मरकाम भी ताल्लुकात रखते हैं। लेकिन लोकप्रियता के मामले में पार्टी अध्यक्ष से श्री लखमा काफी आगे हैं। यही वजह है कि “दे दिस सब ला चकमा, आई लव यू कवासी लखमा” वाला जुमला बस्तर सहित पूरे प्रदेश में कुछ ज्यादा ही गूंज रहा है। इस अनुगूंज के पीछे के निहितार्थ को ताड़ने में यदि मंत्री कवासी लखमा सफल रहे तो उनकी राजनीति का सितारा हमेशा बुलंद रह सकता है। यह लेख वरिष्ठ पत्रकार व अध्यक्ष
आंचलिक समाचार पत्र संग्रहालय एवं शोध संस्थान जगदलपुर, बस्तर ,छत्तीसगढ़ के राजेंद्र कुमार तिवारी के निजी विचार है।