बस्तर का घड़वा धातु शिल्प,बस्तर दशहरा में आकर्षण का केंद्र

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जगदलपुर।विश्व प्रसिद्ध बस्तर दशहरा में 75 दिनों तक चलने वाले इस पर्व में बस्तर क्षेत्र के घड़वा जाति के लोग घड़वा धातु से बने शिल्प के साथ जगदलपुर पहुँचते है।इस धातु को  छत्तीसगढ़ के आदिवासी-लोक धातु शिल्प को ढोकरा धातु शिल्प कहकर संबोधित किया गया है । इस शब्द का प्रचलन संभवतः 1970 के दशक में आरंभ हुआ और जल्द ही आम बोल-चाल में आ गया । लेखिका रूथ रीव्स ने अपनी पुस्तक ’फोक मेटल्स ऑफ इंडिया’ में संभवतः पहली बार ढोकरा शब्द का प्रयोग पश्चिम बंगाल के घुमक्कड़ धातु शिल्पी समुदाय के लिए किया था ।

किंतु बस्तर , छत्तीसगढ़ के धातु शिल्प के लिए ढोकरा धातु शिल्प का संबोधन औचित्यपूर्ण नही है । यहां के धातु-शिल्पी स्वयं को ढोकरा समुदाय का अंग नही मानते और वे अपने शिल्प को भी ढोकरा नाम से संबोधित भी नही करते । बस्तर के धातु शिल्पी स्वयं को  मूलतः घसिया जाति से उदभूत मानते हैं और अब अपने को घढ़वा कहते हैं । इस आधार पर बस्तर के धातु शिल्प को घढ़वा धातु शिल्प कहना अधिक सार्थक होगा ।

बस्तर के घढ़वा धातु शिल्पी द्वारा बनाया गया बैल,मोम के तार द्वारा शरीर की  सज्जा किये जाने के कारण बैल के शरीर पर धागे के सामान टेक्सचर दिखाई दे रहा है जो आदिवासी धातु ढलाई पद्यति की पहचान है। 

इस प्रकार भारत में लॉस्ट-वैक्स पद्धति से धातु ढलाई की लगभग 4500 साल पुरानी एक अटूट परंपरा है । इस परंपरा का एक विशेष रूप पश्चिमी बंगाल, बिहार, उड़ीसा एवं छत्तीसगढ़ के आदिवासी-लोक धातु शिल्प में आज भी देखा जा सकता है । इस पद्यति में मोम एवं साल वृक्ष के गौंद (धुअन) के तारों को मिटटी के आधार पर लपेटकर मूर्ति को आकार दिया जाता है । जिससे मूर्ति की सतह पर एक विशेष प्रकार का अलंकारिक टेक्चर उभर आता है जो इस धातु शिल्प की विशेषता है और इसे एक अलग पहचान देता है ।

बस्तर का घढ़वा धातु शिल्पी समुदाय

बस्तर के धातु-शिल्प का प्रमाणिक उल्लेख सन १९५० में प्रकाशित डा. वैरियर एल्विन की पुस्तक ट्राइबल आर्ट ऑफ़ मिडिल इंडिया में मिलता है । उन्होंने बस्तर में धसिया जाति के लोगों द्वारा पीतल के बर्तन, गहने और मूर्तियां बनाये जाने का उल्लेख किया था । रसल और हीरालाल ने अपनी पुस्तक में, सेन्ट्रल प्रविंस के गजेटियर 1871 के हवाले से लिखा है घसिया एक द्रविडियन मूल की जाति है जो बस्तर में पीतल के बर्तन सुधारने और बनाने का काम भी करती है ।

परंतु आज बस्तर के अनेक धातु शिल्पी अपने को घसिया जाति का नहीं मानतें वे अपने का स्वतन्त्र घढ़वा आदिवासी जाति का बताते हैं। बहुत से घढ़वा यह बात भी स्वीकारते हैं कि, घसिया जाति की वह शाखा जो धातु ढलाई का कार्य करने लगी, घढ़वा कहलाने लगी है । वे कहते हैं घढ़वा का शाब्दिक अर्थ घढ़ने वाला है अर्थात वह व्यक्ति जो मूर्तियां और गहने आदि गढता है, घढवा कहलाता है ।

इस सम्बन्ध में बस्तर में अनेक किवदंतियां प्रचलित हैं इनमें से एक प्रमुख कहानी जो थोडे़ बहुत परिवर्तन के साथ अधिकांशतः घढवा लोगों द्वारा मान्य की जाती है, यह है कि बस्तर रियासत  के समय में बस्तर के राज दरवार में किसी व्यक्ति ने पैर में पहनने का आभूषण पैरी महाराज को भेंट दिया था । महाराज ने गहने के कलात्मक सौन्दर्य से प्रभावित होकर कहा कि भाई तुम लोग तो गहने घढ़ते हो, इसलिए तुम घढ़वा हो, आज से तुम्हे घढ़वा कहा जायेगा । तब से बस्तर के धातु शिल्पी घढ़वा कहलाने लगे।

यू तो घढवा सारे बस्तर में फैले हुए हैं, किन्तु इनके बस्तर का मूल निवासी होने के बारे में यहां दो प्रकार की मान्यतायें प्रचलित हैं । कुछ लोग यह मानते हैं कि घढ़वा बस्तर के ही मूल निवासी हैं, क्योंकि इनका रहन-सहन, रीति-रिवाज, आचार व्यवहार, वेश भूषा, नृत्य-गीत, देवी-देवता वही हैं जो बस्तर में रहने वाले अन्य आदिवासियों के हैं, वे बोली भी स्थानीय ही बोलते हैं ।

घढ़वाओं में प्रचलित दूसरा मत यह है कि वे बस्तर के मूल निवासी नहीं हैं, अपितु उड़ीसा से यहां आकर बसे हैं । कहते हैं कि एक बार बस्तर महाराज ने अपना महल बनवाया तब उन्हे दंतेश्वरी देवी की धातु मूर्ति बनवाने की आवश्यकता हुई । इस समय सारे बस्तर में धातु मूर्ति ढाल सकने वाला कोई व्यक्ति नही मिला । तब उड़ीसा से पांच घढ़वा परिवारों को यहां बुलाया गया और उन्होंने दंतेश्वरी देवी की चांदी की मूर्ति ढालकर तैयार की । कालांतर में वे परिवार ही सारे बस्तर में फैल गये ।