भाषा, संस्कृति, नृत्य और साहित्य ही नहीं जनजातियों को भी बचाने की भी जिम्मेदारी
राष्ट्रीय जनजातीय साहित्य महोत्सव का मुख्यमंत्री ने किया शुभारंभ
रायपुर। राष्ट्रीय जनजातीय साहित्य महोत्सव में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने आयोजन को समाज की मुख्यधारा और आदिवासी धारा के बीच का सेतु बताया। तीन दिवसीय जनजातीय साहित्य महोत्सव का शुभारंभ करते हुए उन्होंने कहा, छत्तीसगढ़ 44 प्रतिशत जंगल से घिरा हुआ है। यहां 31 प्रतिशत जनजातियां निवास करती हैं। उनकी अलग भाषा-बोली और जीवन शैली है। छत्तीसगढ़ देश का नौवां और जनसंख्या की दृष्टि से 16वां बड़ा राज्य है। अब तक यह अछूता प्रदेश रहा है। पिछले तीन सालों में हमने जो किया, वह सबके सामने है। राष्ट्रीय आदिवासी नृत्य महोत्सव किया, वह अंतर्राष्ट्रीय हो गया। दुनिया के कई देशों के प्रतिभागी आए। बाहर के लोग आए तो इस राज्य के प्रति उनकी सोच बदली।
मुख्यमंत्री ने कहा, यह चिंता का विषय है कि कई जनजातीय बोलियों का अस्तित्व संकट में है। इसकी वजह से संस्कृति, विचार परंपरा भी विलुप्त होती है। इस बात को ध्यान में रखते हुए सरकार ने यहां की 16 बोली-भाषाओं की पुस्तकें प्राइमरी स्कूल में ही शामिल की हैं। बस्तर में बादल एकेडमी नाम से एक संस्था बनाई है। वह वहां की कला, साहित्य और भाषा आदि को सहेजने की कोशिश कर रहे हैं। सौभाग्य की बात है कि इतने वर्षों के बाद पहली बार यहां साहित्य महोत्सव का आयोजन हो रहा है। मुख्यधारा और आदिवासी धारा के बीच कोई सेतु नहीं है। इसकी वजह से दोनों धाराओं में क्या बदलाव हो रहा है, दूसरी तरफ के लोग नहीं जान पा रहे हैं। यह कार्यक्रम इन दोनों धाराओं के बीच एक पुल का काम करेगा।
केवल इमारती पेड़ लगाने से दूर हुए आदिवासी
मुख्यमंत्री ने कहा, जंगल क्यों कट रहे हैं। एक समय था कि आदिवासियों को नमक के अलावा कुछ नहीं चाहिए था। बाद में हमने देखा कि जंगल से फलदार और उपयोगी वृक्ष काट दिए गए। जंगल के नाम पर इमारती पेड़ ही लगाते गए। इससे सबसे ज्यादा नुकसान आदिवासियों को हुआ है। वे लोग जंगल से अलग हो गए। हमने तय किया है कि जंगल में जो भी पेड़ लगाया जाएगा, वह फलदार पेड़ ही होगा। इससे हमारा जंगल भी हराभरा रहेगा और आदिवासियों की जीविका भी सुरक्षित होगी।
संरक्षित जनजातियों को जागरुक करना जरूरी
मुख्यमंत्री ने कहा, प्रिमिटिव ट्राइब्स की संख्या भी लगातार कम हो रही है। यह भी चिंता का विषय है। यहां की पंडो जनजाति एलोपैथी दवाई लेती ही नहीं। इसकी वजह से छोटी-छोटी बीमारियों से जान चली जाती है। वहां जनजागृति भी करनी जरूरी है। उन्होंने कहा, हमें भाषा, संस्कृति, नृत्य और साहित्य को ही नहीं बचाना। हमारे ऊपर उन जनजातियों को भी बचाने की भी जिम्मेदारी है।
बस्तर बैंड पर झूमे मुख्यमंत्री
उद्घाटन सत्र में प्रख्यात बस्तर बैंड ने आदिम धुनों के साथ माहौल बना दिया। कुछ देर की प्रस्तुति के बाद स्थिति यह बनीं कि खुद मुख्यमंत्री भूपेश बघेल भी नर्तकों के साथ झूम उठे। तीन दिन के महोत्सव में राज्य की विभिन्न नृत्य विधाओं का प्रदर्शन किया जाना है। इसमें जनजातीय नृत्य शैला, सरहुल, करमा, सोन्दो, कुडुक, डुंडा, दशहरा करमा, विवाह नृत्य, मड़ई नृत्य, गवरसिंह, गेड़ी, करसाड़, मांदरी, डण्डार आदि नृत्यों का प्रदर्शन शमिल है।