देश-विदेश में जो भी स्थान है उन सबकी एक बानगी होती है-अरविन्द मिश्र
कला जीवंत है, हमें कला और जीवन के बीच की खाई को पाटना होगा-डॉ. चक्रवती
यह पुस्तक सांस्कृतिक विविधता को तथा छत्तीसगढ़ के एक लघु भारत का चित्र प्रस्तुत करती – डॉ. चित्तरंजन
रायपुर, 07 जनवरी। छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक विरासत एवं सुपरिचित संस्कृतिकर्मी अरविन्द मिश्र द्वारा लिखित ‘छत्तीसगढ़ की बानगी (आनी-बानी के छत्तीसगढ़) पुस्तक पर आधारित विशेष विषय पर व्याख्यान का आयोजन गत दिवस किया गया।
कार्यक्रम के प्रमुख वक्ता अरविन्द मिश्र ने अपने संबोधन में कहा कि देश-विदेश में जो भी स्थान है उन सबकी एक बानगी होती है। हमारा देश विविधता का देश है। छत्तीसगढ़ में काफी सांस्कृतिक विविधता है। छत्तीसगढ़ में इसे आनी-बानी कहते हैं। उन्होंने छत्तीसगढ़ की विभिन्न परंपरा जैसे रहन-सहन, खान-पान, आभूषण, नृत्य, गायन, लोक-संगीत, लोक-गीत आदि अनेक बातों का जिक्र किया। पुस्तक में शामिल लोक परंपरा जैसे रोजगार, पौनी-पसारी, गौठान, दईहान, खेरतादार, अधिया, हरेली, छेरछेरा पुन्नी, आंट, बरगद, तुरकीन, धान की बाली, छत्तीसगढ़ के पकवान, गोदना, रंग परंपरा – नाचा गम्मत, बदना, खेल-खेल में, लोक वाद्य, बाजा बाजार, रामकोठी, बाड़ी, मेला-मड़ई, शिल्पकला का विस्तारपूर्वक विश्लेषण किया।
कार्यक्रम के मुख्य अतिथि वरिष्ठ संस्कृतिकर्मी डॉ. कल्याण कुमार चक्रवर्ती ने इस अवसर पर अपने उद्बोधन में कहा कि कला जीवंत है। हमें कला और जीवन के बीच की खाई को पाटना है। रायपुर शहर में एक समय 120 तालाब होते थे जो शहर को सिंचित करते थे। भारत में भाषा की वैविध्यता व समन्वय है। भाषायी लेन-देन को पहचानना जरूरी है। लोक-साहित्य में प्राचीन परंपरा को याद करना चाहिए। वस्तुपरक बनना यथार्थवाद की ओर जाना है। उत्साह, जोश और संपे्रषण को लिपिबद्ध करना जरूरी है। जिस आंचलिक भाषा को हम देखते हैं उसे यहां की आंचलिक भाषा से सम्मिलित करना चाहिए।
आभार प्रदर्शन इन्टैक के आजीवन सदस्य पथिक तारक ने किया। उन्होंने इस बात को जोड़ा कि अधिया से महत्वपूर्ण कड़ी सपहा है। उन्होंने सीला और बदना का उल्लेख भी किया। कार्यक्रम का संचालन इन्टैक के संयोजक राजेन्द्र चांडक ने किया। इस अवसर पर इन्टैक के सदस्यों के अलावा संस्कृतिकर्मी बड़ी संख्या में उपस्थित थे।
कार्यक्रम के प्रारंभ में अतिथियों का स्वागत डॉ. अरूण कुमार व डॉ. संजीव कुमार राय ने किया। इन्टैक महासमुंद अध्याय के संयोजक दाऊलाल चन्द्राकर व कुमुद लाड ने स्मृति चिन्ह भेंट किया।
पुस्तक के बारे में:
पुस्तक के विषय पर प्रारंभिक वक्तव्य सुप्रसिद्ध भाषाविद् डॉ. चित्तरंजन कर ने दिया। उन्होंने कहा कि यह पुस्तक सांस्कृतिक विविधता को तथा छत्तीसगढ़ के एक लघु भारत का चित्र प्रस्तुत करती है। पुस्तक में परंपरा का निर्वाह किया गया है। संस्कृति की बनावट चतुराई से नहीं विवेक से होती है। जब तक हम अपनी संस्कृति को नहीं जानेंगे तो आने वाली पीढ़ी को क्या सौपेंगे? लेखक ने संस्कृति को सुनियोजित ढंग से संयोजित किया है। यह पुस्तक आने वाली पीढ़ी के लिये संदर्भ ग्रंथ साबित होगी। कला सिर्फ मनोरंजन का साधन नहीं है बल्कि यह शिक्षाप्रद है। इससे सामाजिक सौहार्द बनता है।