- निजी प्रेक्टिस में व्यस्त रहते हैं बस्तर जिले के सरकारी डॉक्टर
- आदिवासियों को भगवान भरोसे छोड़ दिया धरती के इन भगवानों ने
अर्जुन झा
बकावंड सरकारी अस्पतालों के डॉक्टर और बस्तर जिले के सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में पदस्थ विकासखंड चिकित्सा अधिकारी शासन से हर माह एक से डेढ़ लाख तक की तनख्वाह लेते हैं, फिर भी सरकारी अस्पतालों में सेवा नहीं देते। जिले के अधिकतर सरकारी डॉक्टर्स निजी प्रेक्टिस पर ज्यादा ध्यान दे रहे हैं। वे सरकारी अस्पतालों के लिए उपलब्ध कराए गए संसाधनों और दवाओं का भी उपयोग अपनी निजी क्लिनिकों में कर रहे हैं। धरती के भगवान कहे जाने वाले इन डॉक्टरों ने बस्तर के आदिवासियों को ऊपर वाले भगवान के भरोसे छोड़ रखा है।
सरकारी डॉक्टरों के निजी प्रेक्टिस पर प्रतिबंध लगाने बाबत सरकार चाहे कितना भी दावा करे, लेकिन बस्तर जिले के सरकारी डॉक्टर इस इस दावे की हवा निकाल रहे हैं। जिले के प्राथमिक और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में स्वास्थ्य सेवा का बड़ा बुरा हाल है। छत्तीसगढ़ सरकार ने बस्तर के आदिवासियों और वनवासियों को बेहतर स्वास्थ्य सुविधा उपलब्ध कराने में कोई कसर बाकी नहीं रखी है। बस्तर में स्वास्थ्य सुविधा अमूमन हर गांव तक पहुंचाने के मुकम्मल इंतजाम शासन ने किए हैं। कस्बानुमा गांवों में प्राथमिक और विकासखंड मुख्यालयों में सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र शासन द्वारा खोले गए हैं। अधिकांश सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों को मॉडल हॉस्पिटल के रूप में विकसित कर उन्हें हर तरह की सुविधा से लैस किया गया है। सभी प्राथमिक और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में आवश्यक चिकित्सकीय उपकरण, पर्याप्त स्टॉफ, पर्याप्त मात्रा में सभी रोगों की दवाइयां उपलब्ध कराए गए हैं और विशेषज्ञ चिकित्सकों की नियुक्ति की गई है। संवेदनशील और नक्सल प्रभावित क्षेत्र होने के कारण बस्तर जिले में पदस्थ स्वास्थ्य कर्मियों को मैदानी तथा सुरक्षित इलाकों में तैनात स्वास्थ्य कर्मचारियों की अपेक्षा काफी ज्यादा वेतन दिया जाता है। इसी तरह बस्तर जिले में पदस्थ सरकारी डॉक्टरों को डेढ़ लाख रु. से लेकर लगभग दो लाख रु. तक का वेतन, विशेष भत्ता के साथ ही अन्य सुविधाएं भी दी जाती हैं। इसके बावजूद सरकारी डॉक्टर अपना मूल कर्तव्य नहीं निभा रहे हैं। सरकारी अस्पतालों में डॉक्टरों के दर्शन ही नहीं होते। वे खानापूर्ति करने कुछ देर के लिए सरकारी अस्पतालों में पहुंचते हैं। वे ड्यूटी टाइम में भी अपनी क्लिनिकों में प्राइवेट प्रेक्टिस करते रहते हैं। सरकारी डॉक्टर अपने दायित्व वाले अस्पतालों को मातहत कर्मचारियों के भरोसे छोड़ देते हैं। ये मातहत कर्मचारी स्टॉफ नर्स, नर्स, प्रशिक्षु नर्स, वार्ड बॉय, पुरुष स्वास्थ्य कार्यकर्त्ता आदि होते हैं। इनसे ईलाज की उम्मीद करना बेमानी है। नर्सेस सिर्फ बीपी, हार्ट बिट आदि चेक कर सकते हैं और भूले भटके पहुंचे किसी डॉक्टर द्वारा मरीज के लिए लिखी गई दवाइयां मरीजों का समय पर दे भर सकते हैं। इस बीच अस्पताल में कोई दुर्घटनाग्रस्त व गंभीर बीमार व्यक्ति को ईलाज ले लिए तथा किसी गर्भवती महिला को प्रसव के लिए लाया जाता है, तब पीड़ित का तो भगवान ही मालिक रहता है। अगर अस्पताल में मौजूद स्वास्थ्य कर्मचारी घायलों, गंभीर बीमारों का ईलाज कर देते हैं और केस बिगड़ जाता है, तब उस कर्मचारी के खिलाफ कार्रवाई हो जाती है। इस अनावश्यक उत्पीड़न और होम करते हाथ जलाने से बचने के लिए कर्मचारी ओपीडी पेशेंट को बाहर से ही चलता करने के लिए मजबूर हो जाते हैं।
मेडिकल स्टोर्स में करते हैं प्रेक्टिस
डॉक्टर्स अपने स्वास्थ केंद्रों में समय न देकर उनके पदस्थापना वाले गांव या कस्बे में संचालित मेडिकल स्टोर्स में बैठकर प्राइवेट प्रेक्टिस करते हैं। जानकारी तो यह भी मिली है कि सरकारी अस्पतालों के लिए शासन द्वारा उपलब्ध कराई गईं मशीनें तथा अन्य उपकरण इन डॉक्टरों की निजी क्लिनिकों की शोभा बढ़ा रहे हैं, जिनकी मदद से वे मरीजों का उपचार करते हैं। सरकारी अस्पतालों की दवाएं भी इनके निजी क्लिनिकों में आने वाले मरीजों को दी जाती हैं। मेडिकल स्टोर्स के संचालक इन डॉक्टरों को निजी प्रेक्टिस के लिए जगह और अन्य सुविधाएं मुहैया कराते हैं। डॉक्टरों की लिखी डिस्क्रिप्शन पर्ची की बदौलत मेडिकल स्टोर्स में दवाओं की अच्छी खासी बिक्री हो जाती है। इसके एवज में मेडिकल स्टोर्स के संचालक इन डॉक्टरों को कमीशन और महंगे तोहफे भी देते हैं।
ओपीडी और भर्ती मरीजों का कोई माई बाप नहीं
जिले के सरकारी अस्पतालों में ओपीडी कॉउंटर जरूर बनाए गए हैं, मगर ओपीडी में पहुंचे मरीजों, गंभीर बीमारों, दुर्घटनाग्रस्त व्यक्तियों की नब्ज तक देखने के लिए भी कोई नहीं रहता। ऐसे मरीजों को जगदलपुर क बड़े अस्पताल में जाने के लिए कह दिया जाता है। मॉडल हॉस्पिटल कहे जाने वाले बकावंड के सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में हाल ही में मानवता को शर्मसार कर देने वाली घटना सामने आई थी। यहां दुर्घटनाग्रस्त ओड़िशा निवासी एक युवक को लाया गया था, तब उसे देखने के लिए भी कोई डॉक्टर नहीं पहुंचा। बाद में उस युवक को मृत घोषित कर दिया गया। इसके बाद भी डॉक्टरों ने युवक के शव को अस्पताल में पहले से भर्ती मरीजों के बीच एक बेंच पर पूरी रात रखे रहने दिया। जब यह घटना सार्वजनिक हो गई, तब अस्पताल की एक स्टॉफ नर्स को बिना गलती के सस्पेंड कर दिया गया। जबकि उस वक्त अस्पताल से नदारद रहे खंड चिकित्सा अधिकारी और ड्यूटी डॉक्टर के खिलाफ कोई एक्शन नहीं लिया गया।
सुदूर गांवों में तो और भी बुरा हाल
बकावंड, लोहंडीगुड़ा, बस्तर समेत अन्य विकासखंडों के सामुदायिक व प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों का तो हाल बेहाल है ही, सुदूर धुर नक्सल प्रभावित इलाकों के स्वास्थ्य केंद्रों का और भी बुरा हाल है। इन इलाकों के सरकारी अस्पतालों में पदस्थ डॉक्टर केवल खानापूर्ति के लिए हफ्ते पंद्रह दिन में भूले भटके एकाध बार जाते हैं। वहां मरीजों का उपचार नहीं हो पाता। डॉक्टर हमेशा इन अस्पतालों से गायब रहते हैं। इन संवेदनशील इलाकों में अपनी ड्यूटी वाले स्थानों पर डॉक्टर निवासरत न रह कर दूर स्थित सुविधा वाले बड़े गांवों या शहरों में निवास और वहीं प्राइवेट प्रेक्टिस करते हैं। सरकारी अस्पतालों में अचानक कोई जनप्रतिनिधि या प्रशासनिक अधिकारी पहुंच जाएं, तो उन्हें यह कहकर भ्रमित किया जाता है कि डॉक्टर साहब अभी अभी दौरे पर निकले हैं। या फिर कह दिया जाता है कि डॉक्टर पीएचसी विजिट पर गए हुए हैं।