- बस्तर संभाग की सीटों पर विशेष ध्यान केंद्रित कर रखा है भाजपा ने
- छग में भाजपा के राष्ट्रीय नेताओं की आमदरफ्त बढ़ने के मायने
- अर्जुन झा
जगदलपुर हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक के विधानसभा चुनावों में मिली हार के बाद छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और राजस्थान में दुर्दशा से बचने भाजपा कोई ऐसा ब्रम्हास्त्र चला सकती है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आभामंडल का सीधा असर इन राज्यों के चुनावों पर पड़े। एक देश एक चुनाव का ब्रम्हास्त्र चलाकर भाजपा इन तीनों राज्यों में अपनी गिरती साख को थामने का उपक्रम कर सकती है। छत्तीसगढ़ में पार्टी के राष्ट्रीय नेताओं की आमदरफ्त काफी बढ़ गई है। भाजपा के ये नेता बस्तर संभाग पर कुछ ज्यादा ही ध्यान केंद्रित कर रहे हैं। राजनीति के जानकारों का मानना है कि यह भाजपा की बढ़ती बेचैनी और छटपटाहट को दर्शाता है।राम नाम के सहारे फर्श से अर्श तक पहुंच चुकी भाजपा एक के बाद एक राज्यों की सत्ता गंवाती जा रही है। पहले छत्तीसगढ़ और राजस्थान से भाजपा की विदाई हुई। फिर हिमाचल में भी भाजपा की उम्मीदों पर हिमपात हो गया। हालिया दौर में उसे कर्नाटक की जनता ने भी कंटक की तरह निकाल फेंका। अब राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ की सत्ता हर हाल में पाने के लिए बेताब भाजपा कोई बड़ा दांव खेल सकती है। माना जा रहा है कि एक देश, एक चुनाव का आखिरी हथियार ही बचा रह गया है, जिसे इन तीनों राज्यों के चुनावों में वह ब्रम्हास्त्र की तरह उपयोग कर सकती है। पहले देखा जा चुका है कि आम चुनावों में देश की जनता ने मोदी की खातिर भाजपा को समर्थन दिया। राज्यों के चुनावों में स्थानीय मुद्दे प्रभावी रहे। वहां मोदी का जादू नहीं चल पाया। मोदी मैजिक राज्यों में भी चले, इसका एक उपाय है कि देश में एकसाथ चुनाव की वह व्यवस्था बहाल हो जाए, जो 60 के दशक में बंद हो गई थी। ऐसा हुआ तो देश में एकसाथ चुनाव हो सकते हैं। इसके लिए आम सहमति की जरूरत है। इस बाबत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 2019 में ही पहल कर चुके हैं। अब इस दिशा में तेजी से कदम उठाने का समय आ गया है। भारत निर्वाचन आयोग इस विषय पर सकारात्मक रुख अपना सकता है। मोदी के अचानक फैसले लेने के अंदाज को देखते हुए चर्चा जोर पकड़ रही है कि मोदी है तो कुछ भी मुमकिन है। पर क्या वह विपक्ष इस पर सहमत हो सकता है, जो मोदी के हर फैसले का घनघोर विरोध करता है। वैसे केंद्र सरकार के सिटीजन एंगेजमेंट प्लेटफॉर्म माय गवर्नमेंट ने लोकसभा और राज्य विधानसभा दोनों के लिए एक साथ चुनाव कराने पर चर्चा शुरू की है। यह राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के एकसाथ चुनाव कराने के पक्ष में के बाद सामने आया है।कार्मिक, लोक शिकायत, कानून और न्याय पर गठित संसदीय स्थायी समिति की 79वीं रिपोर्ट पिछले साल संसद के दोनों सदनों में पेश की गई थी । यह रिपोर्ट लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं के एकसाथ चुनाव कराने की व्यवहार्यता के मुद्दे पर आधारित है। समिति ने अपनी रिपोर्ट में अनुभव व्यक्त किया है कि इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर बहस शुरू की जानी चाहिए और बार-बार चुनाव से बचने के लिए राष्ट्रीय आम सहमति बनाने का प्रयास किया जाना चाहिए। विदित है कि 1960 के दशक के अंत में एकसाथ चुनाव का सिलसिला रुक गया। लोकसभा और विधानसभाओं के पहले आम चुनाव 1951-52 में एकसाथ हुए थे। 1957, 1962 और 1967 में हुए तीन आम चुनावों में यह क्रम जारी रहा। 1968 और 1969 में कुछ विधानसभाओं के विघटन के साथ यह क्रम बाधित हो गया। 1970 में लोकसभा को समय से पहले ही भंग कर दिया गया और नए चुनाव 1971 में हुए। पहली , दूसरी और तीसरी लोकसभा ने पांच साल का कार्यकाल पूरा किया। संविधान के अनुच्छेद 352 (इमरजेंसी) के तहत पांचवी लोकसभा का कार्यकाल 1977 तक बढ़ाया गया था। मतलब यह कि एक देश में एकसाथ चुनाव कराने की व्यवस्था भारत में पहले थी। यह जैसे बदल गई, वैसे इसकी बहाली भी हो सकती है। मोदी पर विपक्ष वैसे भी मनमाने ढंग से फैसले लेने, तानाशाही करने के आरोप लगाते रहता है, इसलिए एक आरोप और सही। कहने वाले कह सकते हैं कि मोदी कड़े और बड़े फैसले लेने में जरा भी संकोच नहीं करते। जीएसटी लागू कर दी, नोटबंदी लागू कर दी, धारा 370 खत्म कर दी, तीन तलाक खत्म कर दिया, देशभर में लंबा लॉक डाउन लगा दिया, पाकिस्तान पर एयर स्ट्राइक कर दी, 2 हजार के नोट फिर बंद कर दिए। मोदी कुछ भी कर सकते हैं। एकसाथ चुनाव का फैसला भी वे मौका देखकर कर सकते हैं। देश की जनता इस फैसले का समर्थन कर सकती है। चुनाव आयोग भी यही चाहेगा कि बार – बार चुनाव में देश का धन खर्च न हो। सरकारी तंत्र चुनाव में वर्तमान स्थिति जैसा न उलझे।*बॉक्स**उल्टा भी पड़ सकता है यह दांव*अब राजनीतिक पहलू यह है कि भाजपा छत्तीसगढ़ में दुर्बल है। मध्यप्रदेश में जोड़तोड़ करके सत्ता में है। वहां भी फिलहाल भाजपा की स्थिति ठीक नहीं है। राजस्थान में भी कोई सत्ता की थाली उसके सामने नहीं है। इसके बाद लोकसभा चुनाव सिर पर हैं। यदि एकसाथ चुनाव की व्यवस्था बहाल हो गई, तो मोदी के नाम का फायदा भाजपा को मिल सकता है। वैसे दांव उलटा भी पड़ सकता है। ऐसा हुआ तो राजनीति नए सांचे में ढल जाएगी। ऐसा इसलिए महसूस होता है कि इन तीनों चुनावी राज्यों में ग्रामीण मतदाताओं की बहुलता है और ग्रामीण मतदाताओं को ऐसे फैसलों में विशेष रूचि नहीं रहती। वे अपने पुराने ढर्रे पर चलने में ज्यादा विश्वास रखते हैं।
कहीं यह बेचैनी और छटपटाहट तो नहीं
कुछ राज्यों में हालिया हुए चुनावों के नतीजों ने भाजपा को झकझोर कर रख दिया है। इसलिए छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और राजस्थान की विधानसभाओं के चुनावों को लेकर भाजपा के शीर्ष नेताओं की बेचैनी साफ झलकने लगी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी राजस्थान और मध्यप्रदेश का दौरा कुछ दिनों पहले ही कर चुके हैं। उनके जल्द छत्तीसगढ़ आने की भी चर्चा है। भाजपा आदिवासी बहुल बस्तर संभाग पर कुछ ज्यादा ही ध्यान केंद्रित करती नजर आ रही है। भाजपा के दिग्गज नेताओं की आमदरफ्त बस्तर में काफी बढ़ गई है। केंद्रीय गृहमंत्री अमित डेढ़ माह पहले ही यहां आए थे। भाजपा के प्रदेश प्रभारी ओम माथुर बस्तर के दो फेरे लगा चुके हैं। प्रदेश अध्यक्ष अरुण साव 7 जून से बस्तर प्रवास पर हैं। वे पहले भी संभाग के अधिकतर जिलों का दौरा कर चुके हैं। अब भाजपा के फायर ब्रांड नेता एवं केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह बस्तर दौरे पर आ गए हैं वे 9 जून तक बस्तर के कांकेर, केशकाल, जगदलपुर और दंतेवाड़ा प्रवास पर रहेंगे। बस्तर संभाग में बारह विधानसभा सीटें हैं। पिछले चुनाव में यहां भाजपा अपना खाता भी नहीं खोल पाई। माना जा रहा है कि बेचैनी और छटपटाहट की वजह से भाजपा के बड़े नेता लगातार बस्तर आ रहे हैं।