- आखिर नक्सलियों के आ कहां से रही है इतनी रकम
- दो मुठभेड़ों के बाद मिल चुके हैं 50 हजार रुपए
अर्जुन झा
जगदलपुर बस्तर के आदिवासी जहां पाई पाई के लिए तरसते रहते हैं, वहीं नक्सली नोटों की गड्डियां लेकर जंगलों में घूमते हैं। आदिवासियों की आड़ में सरकार के खिलाफ खुली जंग लड़ रहे नक्सलियों के पास आखिर नोटों का अंबार पहुंच कहां से रहा है? उन्हें अत्याधुनिक हथियार और गोला बारूद मुहैया कौन करा रहा है? यह गंभीर चिंतन एवं जांच का विषय है और बस्तर के आदिसियों के लिए विचारणीय मसला भी। हालिया हुई दो मुठभेड़ों में मारे गए महज चार नक्सलियों के शवों के पास से 50 हजार रुपए बरामद किए जा चुके हैं।
बस्तर संभाग में सक्रिय नक्सलियों में ज्यादातर बाहरी हैं और उन्हें बाहरी एवं विदेशी मदद मिलने की खबरें गाहे बगाहे सामने आती ही रहती हैं। मुठभेड़ों के बाद मारे जाने वाले नक्सलियों और उनके अस्थायी कैंपों से बरामद हथियार भी इस बात की तस्दीक करते हैं। पुलिस और सुरक्षा बल चीन और अन्य देशों में निर्मित माऊजर, रायफल, गन आदि बड़ी संख्या में बरामद कर चुके हैं। अब नोटों की गड्डियों की बरामदगी का सिलसिला शुरू हो गया है। पिछली दो मुठभेड़ों के बाद पुलिस मारे गए नक्सलियों की वर्दी की जेबों और बैग से 50 हजार रुपए बरामद कर चुकी है। ये 500- 500 के करारे नोट हैं। कुछ दिनों पहले बीजापुर जिले के जप्पेमरका और कमकानार के जंगलों में सुरक्षा बलों के साथ मुठभेड़ में दो ईनामी महिला नक्सली विज्जे ताती उर्फ सुक्का और नीला फरसा के पास से 500 -500 के 40 नोट यानि कुल 20 हजार रुपए मिले थे। 28 मई को बीजापुर जिले के ही मद्देड़ थाना क्षेत्र अंतर्गत कोरंजेड़ – बंदेपारा में हुई मुठभेड़ में मारी गई 8 लाख की ईनामी महिला नक्सली मनीला पुनेम उर्फ मनीला पदम और 1 लाख के ईनामी पुरुष नक्सली मंगलू कुड़ियम के पास से भी 500- 500 के 60 नोट यानि 30 हजार रुपए मिले हैं। इस तरह दोनों मुठभेड़ों के बाद नक्सलियों के पास से कुल 50 हजार रुपए मिल चुके हैं। वह भी जंगल में घूम रहे नक्सलियों से। अंदाजा लगाया जा सकता है कि जो नक्सली गुफाओं, कंदराओं और सुरक्षित ठिकानों में छुपे बैठे बड़े नक्सली लीडर्स के पास तो करोड़ों अरबों खजाना होगा। आखिर इन नक्सलियों के पास रकम कहां से आ रही है? उनकी आर्थिक मदद कौन कर रहा है? उनकी आमदनी का जरिया आखिर क्या है? ये तमाम सवाल जहां पुलिस के लिए जांच के बिंदु हो सकते हैं, वहीं बस्तर के आदिवासियों के लिए विचारणीय मुद्दे भी हैं। बस्तर के आदिवासियों और नक्सलियों के समर्थन में बार बार उठ खड़े होने वाले सियासतदानों को इस मसले पर गहन मंथन करना होगा। उन्हें इस बात पर गौर करना होगा कि जो नक्सली गरीब आदिवासियों के हक की और जल, जंगल, जमीन बचाने की लड़ाई लड़ने का दंभ भरते हैं, वे धनपति कुबेर कैसे बनते जा जा रहे हैं? जबकि बस्तर का आम आदिवासी आज भी पाई पाई का मोहताज है।
तालिबानी सजा आखिर क्यों?
बस्तर संभाग लंबे समय से लाल आतंक का दंश झेलता आ रहा है। पहले पहल यहां के बाशिंदे दो पाटों के बीच पिस रहे थे। पुलिस की मदद करते थे, तो नक्सली उन पर कहर ढाते थे और नक्सलियों की मदद करने पर पुलिस टार्चर करती और जेल में बंद कर देती थी। पुलिस और सुरक्षा बलों के रवैए में अब काफी बदलाव आ चुका है। ये अब आदिवासियों का दिल जीतकर नक्सली मांद तक पहुंच रहे हैं। केंद्रीय सुरक्षा एजेंसी सीआरपीएफ और पुलिस द्वारा बीहड़ों और दूरस्थ नक्सल प्रभावित गांवों में कैंप स्थापित कर वहां के आदिवासियों को चिकित्सा, पेयजल, उनके बच्चों की शिक्षा आदि में योगदान दिया जा रहा है। इसके सार्थक परिणाम भी मिलने लगे हैं। एक तरफ पुलिस और सुरक्षा बल प्यार से आदिवासियों का दिल जीत रहे हैं। वहीं दूसरी ओर नक्सली आज भी आदिवासियों को तालिबानी अंदाज में सजा देने से बाज नहीं आ रहे हैं। पुलिस मुखबिरी के शक में आदिवासी युवाओं को घर से निकालकर उनके बुजुर्ग मां बाप और पत्नी बच्चों के सामने कभी कुल्हाड़ी से काटकर तो कभी गोलियों से छलनी कर मौत के घाट उतार दिया जाता है। ऐसे में सवाल यह भी उठता है कि आदिवासियों की मौत पर छाती पीटने वाले लोग तब क्यों आवाज नहीं उठाते? उन्हें बुजुर्ग मां बाप, असमय विधवा हुई पत्नी और बेसहारा हो चुके बच्चों का दर्द आखिर क्यों उद्वेलित, आंदोलित नहीं करता?