- चादर से बाहर पैर फैलाना भारी पड़ गया पूर्व मंत्री को
- बस्तर का सम्राट बनने की चाहत ले डूबी नेताजी को
-अर्जुन झा-
जगदलपुर गीदड़ कभी शेर की जगह नहीं ले सकता और जितनी चादर उतना पैर फैलाओ। ये दोनों कहावतें आम इंसानी जिंदगी में अमूमन रोज ही इस्तेमाल होती हैं और हकीकत से भरी भी हैं। ये कहावतें इन दिनों समूचे बस्तर संभाग में चर्चा का विषय बनी हुई हैं। इसलिए, क्योंकि हमारे बस्तर के एक कांग्रेस नेता ने पूरे बस्तर का सम्राट और शेर बनने की चाहत पाल जो रखी थी। चादर छोटी थी, लेकिन वे पैर ज्यादा पसारने लगे थे। हदें भूलकर ये नेताजी कुछ ज्यादा ही बावले हो चले थे, मगर मतदाताओं ने तो उनकी औकात ही नापकर रख दी। वहीं संभाग के बहुसंख्यक कांग्रेस नेताओं और कार्यकर्ताओं ने साफ जता दिया है कि आप सिर्फ कोंटा के लायक हो इसलिए एक कोंटे तक ही सीमित रहो, पूरे बस्तर का सम्राट बनने के लिए मुंगेरी लाल मत बनो, तो ही बेहतर है।
हम बात कर रहे हैं छत्तीसगढ़ सरकार में आबकारी मंत्री रहे बस्तर संभाग के सुकमा जिले के कोंटा से विधायक कवासी लखमा की। कवासी लखमा अपने बड़बोलेपन और उल जलूल हरकतों के लिए विख्यात हैं। मंत्री बनने से पहले तक कवासी लखमा अपने भोलेपन के लिए भी जाने जाते थे। मगर कहते हैं न कि जब आदमी को पद और पैसा मिल जाता है, तो वह वह औकात से बाहर जाकर छलागें मारने लग जाता है। ऐसा ही कुछ हमारे लखमा जी के साथ भी हुआ। भूपेश बघेल ने उन्हें आबकारी जैसा कमाऊ विभाग क्या दे दिया, वे आसमान छूने की कोशिश करने लगे। अहंकार से पूरित होकर बस्तर के नेताओं और कार्यकर्ताओं को भी हेय दृष्टि से देखने तथा अपमानित करने लगे। ‘सैंया भये कोतवाल, तो डर काहे का’ कहावत भी उन पर चरितार्थ होने लगी। यानि मुख्यमंत्री मेहरबान तो लखमा पहलवान। सो कवासी लखमा पर सियासी पहलवानी का जूनून ऐसा चढ़ा कि बस्तर के गामा पहलवानों के सामने भी खुलकर ताल ठोंकने लगे। भूल गए कि सियासी चांदनी चार दिन ही चमकती है। कवासी लखमा कोंटा से लगातार छह बार जीत दर्ज करा चुके हैं। निसंदेह यह एक बड़ी उपलब्धि है, मगर वे भूल गए कि मतदाताओं का मूड बदलते देर नहीं लगती। जिन कार्यकर्ताओं की मेहनत से जीत मिलती है, उन्हें उपेक्षित करना भी भारी पड़ सकता है। यही भूल और गरुर कवासी लखमा को भारी पड़ गया है। छत्तीसगढ़ में कांग्रेस के भीतर चली जोड़तोड़ और टांग खिंचाई की राजनीति के चलते कवासी लखमा को हाल के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस हाई कमान ने बस्तर सीट से टिकट दे दिया। भाजपा ने भी इस सीट पर बिल्कुल नए चेहरे महेश कश्यप को उतारा। तब लखमा को शायद लगा था कि महेश को तो आसानी से निपटा देंगे। मगर वे भूल गए कि सामने महेश यानि शंकर, भोलेनाथ महादेव खड़े हैं। जिनकी तीसरी आंख खुली तो कांग्रेस के लिए प्रलय भी आ सकता है। प्रखर हिंदूवादी महेश कश्यप ने सियासत से दूर रहते हुए भी आदिवासियों के धर्मान्तरण के खिलाफ और आदिवासी संस्कृति के संरक्षण व हिदुत्व के जागरण के लिए बस्तर संभाग में बड़ी मुहिम चलाई थी। बस्तर में उनका नाम प्रचलित हो गया था। बावजूद सियासी तौर पर कवासी लखमा के सामने उनका कद थोड़ा छोटा था। छोटे सियासी कद वाले महेश कश्यप ने कद्दावर कवासी लखमा को ऎसी पटखनी दी है कि उसका दर्द सालों साल कवासी लखमा को महसूस होता रहेगा। कवासी लखमा की हार के पीछे उनका गरूर, बड़बोलापन और नेताओं व कार्यकर्ताओं के प्रति उपेक्षा भाव मुख्य कारक रहे। मतदाताओं के साथ ही क्षेत्रीय कार्यकर्ताओं ने भी ऊंची उड़ान भर रहे कवासी लखमा के पर एक झटके में ही कतर कर रख दिए। उनकी औकात नाप कर रख दी, उन्हें बता दिया कि पूरे बस्तर का सम्राट और शेर बनने की कोशिश मत करो, कोंटा के हो, एक कोंटे तक ही सीमित रहो, उसी में आपकी भलाई है।
डौकी’ देकर नापी औकात
कांग्रेस हाई कमान भी छत्तीसगढ़ के चालबाज खिलाड़ी नेताओं के दबाव में आकर कवासी लखमा को बस्तर लोकसभा सीट से टिकट देने पर मजबूर हो गया। कांग्रेस नेतृत्व ने शायद कवासी लखमा का वजन जानने का लिए उन्हें उम्मीदवार बना दिया था। कांग्रेस नेतृत्व ने कवासी लखमा सुकमा के नेता हैं या बस्तर के नेता, इसका टेस्ट करने के लिए लोकसभा का टिकिट उन्हें थमा दिया। टिकट मिलने के बाद जब अपने को होशियार और बस्तर का बड़ा नेता समझने वाले लखमा को उनकी हैसियत मालूम पड़ी तो वे चुनावी मंच से बोलने लग गए कि बेटे के लिए बहू मांगने गया था, पार्टी ने मुझे डौकी दे दी, मुझे ही शादी करना पड़ी।अर्थात लखमा ने किसी और के लिए जाल बिछाया था, लेकिन वह खुद के ही जाल में बुरी तरह फंस गए। बस्तर के मतदाता ‘बहू’ और ‘डौकी’ जैसे अल्फाजों में नहीं फंसे। लखमा की महत्वाकांक्षा बड़बोलेपन छत्तीसगढ़ के एक बड़े नेता की भी महत्वाकांक्षा ने कवासी लखमा को जाल में बुरी तरह फंसा दिया। अब शायद कांग्रेस आलाकमान को भी मालूम चल गया हो गया होगा कि कवासी लखमा तो केवल कोंटा सुकमा के ही नेता हैं, पूरे बस्तर के लायक नहीं। बेचारे कवासी लखमा! न माया रूपी ‘डौकी’ यानि सांसदी मिली, न राम यानि मजबूत सियासी कद मिला। बड़े नेता की साजिश में फंसकर कहीं के नहीं रहे।
बड़े नेता की चाल नाकाम
कवासी लखमा को मोहरा बनाकर रायपुर के एक बड़े नेता ने जो चाल चली थी, वह भी नाकाम हो गई। दरअसल रायपुर के तथाकथित बड़े नेता ने छत्तीसगढ़ में कांग्रेस का सर्व शक्तिमान नेता बनने के लिए बस्तर के दो बड़े आदिवासी नेताओं को आपस में लड़ाकर अपनी रोटी सेंकने के लिए बड़ी साजिश रची थी। पहले इस बड़े नेता ने विधानसभा चुनाव में बस्तर संभाग के ज्यादातर विधानसभा सीटों पर अपनी ही पार्टी के आदिवासी नेताओं को हरवाया, ताकि छत्तीसगढ़ की कांग्रेसी राजनीति में आदिवासियों का वर्चस्व न बढ़ने पाए और पिछड़े वर्ग से आने वाला वह नेता ही कांग्रेस की राजनीति का केंद्र बिंदु बना रहे। कांग्रेस के इस बड़े नेता को भी लोकसभा का उम्मीदवार बनाया था, मगर चुनाव में उन्हें भी हार का सामना करना पड़ा। वहीं दूसरी ओर बस्तर लोकसभा सीट के चुनाव में कवासी लखमा के कम अनुभव का लाभ उठाया कुछ चापलूस नेताओं ने। इन नेताओं ने चुनाव के दौरान कवासी लखमा का भरपूर दोहन किया। इन्हीं चापलूस नेताओं ने कवासी लखमा के साथ मिलकर रायपुर के बड़े नेता के इशारे पर विधानसभा चुनावों में चित्रकोट सीट से बड़े कद वाले आदिवासी नेता पीसीसी चीफ दीपक बैज, दंतेवाड़ा सीट से शहीद नेता महेंद्र कर्मा के बेटे छविन्द्र कर्मा और नारायणपुर सीट से उभरते युवा आदिवासी नेता चंदन कश्यप को हराने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी थी। बहरहाल लोकसभा चुनाव ने साबित कर दिया है कि कवासी लखमा केवल सुकमा के ही नेता हैं। बस्तर के बड़ा नेता बनने की चाह ने उन्हें खुद के बुने जाल में फंसा दिया है।
मुखर हो उठे हैं कांग्रेसी
विधानसभा चुनाव के बाद लोकसभा चुनाव में भी कांग्रेस को मिली करारी हार के बाद पूरे छत्तीसगढ़ के वे आम कांग्रेस कार्यकर्ता और नेता जो केवल पार्टी के प्रति निष्ठावान रहकर काम करते रहते हैं, अब मुखर हो उठे हैं। ये नेता कार्यकर्ता दिल्ली से आई फैक्ट फाइंडिंग कमेटी के सामने बड़े नेता और कवासी लखमा की करतूतों का भंडाफोड़ करने से जरा भी नहीं हिचक रहे हैं। कांकेर और रायपुर में फैक्ट फाइंडिंग कमेटी द्वारा ली गई बैठकों में राज्य के विभिन्न इलाकों से पहुंचे हजारों कार्यकर्ताओं ने बड़े नेता और उनके झंडाबरदारों के खिलाफ जमकर शिकायतें की। कवासी लखमा के खिलाफ भी बहुत शिकायत हुई। अब फंसे लखमा कहीं के नहीं रहे।