बात कोई जरूर है, बात का यूं ही नहीं सुरूर है…सरकार और नक्सल के बीच सभ्य समाज!

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अर्जुन झा

जगदलपुर। छत्तीसगढ़ के बस्तर अंचल में नक्सलवाद की समस्या के समाधान के लिए एक सिविल सोसायटी के गठन की खबर को लेकर बस्तर सहित पूरे राज्य में कौतूहल व्यक्त किया जा रहा है कि जब नक्सली सरकार से बातचीत के लिए उत्सुक नहीं हैं और सरकार भी यह स्पष्ट कर चुकी है कि जब तक नक्सली हिंसा के रास्ते का त्याग नहीं करते, तब तक कोई बातचीत नहीं हो सकती, तब ये सिविल सोसायटी सभ्य समाज का चोला पहन कर सरकार और नक्सलियों के बीच बातचीत को उतावली क्यों है! आख़िर इसका असल एजेंडा क्या है? बातचीत के मामले में सरकार की मंशा के मुताबिक न तो अभी हिंसा छोड़ने की प्रतिबद्धता जताई है और न ही हालात में कोई बदलाव नजर आ रहा है। जो टकराव पहले चल रहा था, वह अब भी कायम है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि हर समस्या के समाधान के लिए बातचीत बेहतर विकल्प है।

अभी कृषि सुधार कानूनों को लेकर आंदोलन पर डटे किसानों से केंद्र सरकार कई दौर की बातचीत कर चुकी है। अब तक सहमति नहीं बन सकी है लेकिन बातचीत का रास्ता खुला हुआ है। देर सबेर सहमति बनने की अपेक्षा की जा सकती है। आशय यह है कि भारत सरकार जिस तरह बातचीत से समाधान पर विश्वास करती है, उसी प्रकार छत्तीसग़ढ सरकार भी बातचीत की प्रक्रिया को सरल सहज भाव से स्वीकार करने से कब पीछे हटी है लेकिन बातचीत करने के लिए बातचीत का माहौल अपेक्षित होता है। सरकार ने कभी यह नहीं कहा कि बातचीत नहीं करेंगे। उसने तो राज्य के हित में हमेशा यह कहा है कि नक्सली हथियार छोड़ें, तब बात करेंगे। सिविल सोसायटी कांग्रेस की सरकार को चुनाव पूर्व किए गए वादे याद दिला रही है तो क्या यह सोसायटी बता सकती है कि क्या कांग्रेस ने अपने चुनावी घोषणा पत्र में यह वादा किया था कि नक्सली हिंसा जारी रहते हुए बातचीत की जायेगी!

चुनाव में किए गए वादे के मर्म को महसूस किया जाना चाहिए और किसी सरकार के राजधर्म को गहराई से समझना चाहिए। छत्तीसगढ़ में भाजपा की सरकार के समय भी बातचीत का रास्ता खुला हुआ था और अब कांग्रेस की सरकार के समय भी यह बंद नहीं हुआ है। बातचीत के लिए जो आवश्यक शर्त तब थी, वही अब भी है तो ऐसी किसी सिविल सोसायटी की यहां क्या जरूरत है और क्या भूमिका है? इस समिति में कांग्रेस के हाशिए पर आ चुके वरिष्ठ नेता पूर्व केन्द्रीय मंत्री अरविन्द नेताम और भाजपा में भी किनारे लग चुके वरिष्ठ नेता राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग के पूर्व अध्यक्ष नंदकुमार साय भी शामिल हैं। सीपीआई नेता मनीष कुंजाम और कुछ पत्रकार भी सोसायटी का अंग बताए जा रहे हैं। यह सोसायटी राज्य में शांति का वातावरण निर्मित करने के घोषित उद्देश्य से सरकार और नक्सलियों के बीच बातचीत का सेतु बनने उत्सुक है तो उसे अतीत से आज तक का पूरा परिदृश्य भी देख लेना चाहिए कि राज्य गठन के बाद से सरकार ने नक्सल प्रभावित इलाकों में कितना काम किया है और कर रही है।

सरकार ने भटके हुए लोगों को मुख्यधारा में शामिल होने के लिए पुनर्वास नीति बना रखी है तो हिंसा से जन बचाव के लिए सुरक्षा बल अपनी जान हथेली पर लेकर संघर्ष कर रहे हैं। जनता अब सीधे तौर पर विकास की अवधारणा पर आधारित वातावरण पर ध्यान केंद्रित कर रही है। भय का माहौल धीरे धीरे सिमट रहा है। सुरक्षा बल की मुस्तैदी, जन सरोकार और बहादुरी का समाज पर व्यापक असर पड़ रहा है और नक्सलवाद से मोहभंग होने पर नक्सली मुख्य धारा में लगातार लौट रहे हैं। तब कमजोर पड़ रहे नक्सलवाद को बातचीत का अवसर देने की वकालत करने का क्या औचित्य हो सकता है? यह सरकार के साथ ही आम जनता के लिए चिंतन का विषय है।