बीजापुर:–एक असम की लेखिका ने लिखा कि जो जवान बीजापुर एनकाउंटर में शहीद हुए उन्हें शहीद का दर्जा नहीं दिया जाना चाहिए क्योंकि वो वेतन लेकर काम करते हैं । हालांकि महोदया गिरफ्तार हो गयी हैं लेकिन उनसे मैं पूछना चाहता हूँ कि फिर तो सीमा पर शहीद होने वाले सैनिक को भी शहीद का दर्जा नहीं देना चाहिए क्योंकि वो भी सैलरी लेता है ? सिर्फ आपके जैसे कीबोर्ड वारियर्स जो कमरे में बैठ कर वैचारिक उल्टियाँ करते हैं उनकी गिरफ्तारी पर ही आपको क्रांतिकारी का दर्जा मिलना चाहिए ।
एक बहुत ही “उच्च कोटि” के सामाजिक कार्यकर्ता ने लिखा कि सिपाही बंदूकधारी मजदूर होता है । अपने बच्चों को पालने के लिए बंदूक उठाता है और जंगल में जाकर आम जनता को मारता है । बिलकुल सही कहा आपने कि अपने परिवार का पेट पालने के लिए ही हम पुलिस में आते हैं, सैलरी के लिए ही लेकिन जब वर्दी पहनते हैं तो उसके अंदर से कैसी फीलिंग आती है वो आप कभी समझ नहीं सकते । देश के लिए कुछ करने का जज़्बा उस सैलरी पर भारी पड़ जाता है । मालूम नहीं होता कि किस गोली पर हमारा नाम लिखा है लेकिन

फिर भी जाते हैं ऑपरेशन में इसलिए कि कल को हमारे बच्चे ये ना कहें कि पापा तो पुलिस में थे मम्मा लेकिन कुछ कर नहीं पाए,नक्सली तो अब शहरों में भी पहुँच गए हैं । इन “उच्च कोटि/इलीट क्लास” के सामाजिक कार्यकर्ता को लगता है कि पुलिस अशांति फैला रही तो बता दीजिए कि नक्सलियों ने पिछले तीन दशकों में कहाँ कहाँ शांति लायी है ? आप सोच से अच्छी तो हमारे प्रधान आरक्षक शहीद रमेश जुर्री की सोच थी -” साब जी ये नक्सली लोग बस अपना अस्तित्व बचाने में लगा है,भोला भाला गाँव वालों को पहले बहकाता है जल,जंगल,जमीन के नाम पर और जब कोई नहीं मानता या विरोध करता है तो उसको मुखबिर बोल कर जनताना अदालत में मार देता है,जनता डरके आगे विरोध नहीं करता.. हम लोगों का पहुँच नहीं है वहाँ तक इसलिए हमारे ऊपर भरोसा नहीं जनता को.. जहाँ जहाँ कैम्प खुलता है साब जी वहाँ का जनता क्यों हमारे साथ हो जाता जरा बताइए ?”

एक महोदया ने लिखा कि इस लड़ाई में दोनों तरफ सिर्फ आदिवासी ही मारे जाते हैं । महोदया के ज्ञान के लिए बता दूँ कि हालाँकि ये आदिवासी बहुल इलाका है लेकिन जो फ़ोर्स यहाँ लड़ती है वो सम्पूर्ण भारतवर्ष से आती है । सीआरपीएफ में यू पी,बिहार,झारखंड, तमिलनाडु, केरल,राजस्थान, नागालैंड,जम्मू हर जगह से लड़के नक्सलियों से लोहा लेने के लिए आते हैं । अभी जो जवान नक्सलियों की कैद में बैठा हुआ है फिर भी शेर की बेफिक्री के साथ दिख रहा है वो भी जम्मू का ही रहने वाला है । शहीद दीपक भारद्वाज भी आदिवासी नहीं था बल्कि उसकी तो जाति भी मुझे पता नहीं, आप खोजियेगा, हमारा काम बस नक्सली खोजना है । यहाँ फ़ोर्स का हर जवान

बस्तरिया बन जाता है, वो किसी जाति का नहीं रहता,किसी धर्म का नहीं रहता ,वो आदिवासी नहीं .. भारतवासी बन जाता है ।
सोसल मीडिया पर लिखना बहुत आसान है । ज़मीन पर उतरना बहुत मुश्किल । ऐसी सोच से नक्सलियों और उनके समर्थकों के हौसले बुलंद होते हैं । शहीदों की शान में गुस्ताखी होती है । गुस्ताखी होती है उस माँ की कोख पर जिसने इन शहीदों को जन्म दिया,उस विधवा बीवी पर जिसका सुहाग देश के लिए मिट गया, उस बहन पर जो कभी अपने भाई की कलाई पर राखी नहीं बांध पाएगी ।
“बुद्धिजीवी” बनने के चक्कर में “बुद्धूजीवी” ना बने ।
(लेखक छग पुलिस में डीएसपी हैं)