- आदिवासियों का हाल 78 साल बाद भी ऐसा ही है
–अर्जुन झा-
जगदलपुर अविभाजित मध्यप्रदेश से लेकर पृथक छत्तीसगढ़ राज्य तक कई सरकारें आईं और चली गईं। आजादी के बाद से अब तक केंद्र की सत्ता पर कांग्रेस अधिकतर बार सत्ता पर काबिज रही। वर्तमान में भारतीय जनता पार्टी भी लंबी पारी खेल रही है, मगर बस्तर की आदिवासी नारी आज भी महुआ शराब, सल्फी और ताड़ी बेचकर गुजारा करने मजबूर है। आदिवासियों के नाम पर राजनैतिक रोटी सेंकने वाले सियासतदानों को शायद इससे कोई वास्ता नहीं है। गोद में अपने दूधमुहे बच्चे को लेकर महुआ शराब बेच रही यह बस्तरिहा महतारी आदिवासियों का रोना रोकर वोट मांगने वाले नेताओं के गाल पर करारा तमाचा मारती प्रतीत हो रही है।
वैसे इस बात में कोई दो राय नहीं है कि आदिवासियों का महुआ शराब, सल्फी और ताड़ी से पुराना नाता रहा है। वहीं दूसरी ओर आज की बस्तरिहा पीढ़ी भले ही बीयर, रम, जीन, व्हीस्की की ओर बढ़ चली है, लेकिन पुरानी पीढ़ी अभी भी अपनी परंपरा के संग चल रही है। बस्तर के हाट बाजारों में महुआ शराब बेचती महिलाएं आम तौर पर देखी जाती हैं। इससे उनकी दो तीन सौ रुपए की कमाई हो जाती है। बाजार खत्म होने के बाद नशे में झूमते स्त्री पुरुष घरों को लौटते दिख जाते हैं। हाट बाजारों में मुर्गा लड़ाई, महुआ शराब, सल्फी विक्रय और झूमते गाते राह चलते लोगों को देखकर आभास हो जाता है कि हम बस्तर में हैं। मगर यह बड़ी विडंबना है कि बस्तरिहा महतारी और आम आदिवासियों को शराब के मकड़जाल से बाहर निकालने की कोशिश किसी भी बड़े राजनैतिक दल की सरकार ने नहीं की। यही वजह है कि बस्तर की नारी आज भी महुआ शराब बेचकर घर चलाने मजबूर है।
इन दिनों बस्तर दशहरा पर्व की धूम मची हुई है। बस्तर दशहरा का का मुख्य केंद्र बिंदु जगदलपुर है। बस्तर दशहरा पर जगदलपुर में शराब बेचने पहुंची एकसाथ यह आदिवासी महिला कई मोर्चे संघर्ष करती नजर आ रही है। उसकी गोद एक दूधमुहा बच्चा भी है, जो उस गिलास से खेलने की कोशिश कर रहा है, जिस गिलास से उसकी मां लोगों को शराब नापकर देती है। लगता है आगे चलकर इस बच्चे को अपने परिवार की विरासत सम्हालनी पड़ेगी। जाहिर सी बात है जिसका बचपन शराब और उसकी गंध के बीच गुजरेगा, उसकी जवानी भला कैसे शराब से अछूती रह जाएगी। इस दृश्य को देखकर मन व्यथित हो गया, मगर हमारे रहनुमाओं का दिल इन्हें देखकर शायद नहीं पसीजता। दिल हो तब न पसीजे, वे दिमाग से खेलने वाले खिलाड़ी होते हैं। अपने शातिर दिमाग के दम पर भोलीभाली जनता के दिमाग को चेतना विहीन कर देने में माहिर होते हैं। न मोहब्बत की दुकान चलाने वालों को इनकी चिंता है, न नफरत का बाजार लगाने वालों को।मंगलवार को हमारे आदिवासी मुख्यमंत्री विष्णु देव जगदलपुर शहर में थे। काश उनकी नजर इस बस्तरिहा महतारी पर पड़ जाती, तो शायद आदिवासी समुदाय को इस मकड़जाल से निकालने के लिए सरकार की ओर से कुछ जतन हो जाता। ऐसा नहीं है कि आदिवासियों के उत्थान के लिए सरकारों ने कुछ नहीं किया। किया है, सभी सरकारों ने अपने अपने स्तर पर जितना बन पड़ा किया है, मगर बीच में जो लोग सेतु का काम करते हैं, दरअसल वे लोग बिचौलिया बन बैठे हैं और बिचौलिया तो बिना कमीशन के कोई काम करता नहीं। ऐसे में कैसे हो सकता है आदिवासियों का उद्धार?