जगदलपुर/बस्तर – विश्व प्रसिध्द बस्तर दशहरा की दूसरी महत्वपूर्ण रस्म डेहरी गड़ाई रस्म कि अदायगी आज सीरासार भवन में की गई. करीब 700 वर्षों से चली आ रही इस परम्परानुसार बिरिंगपाल से लाई गई सरई पेड़ की टहनियों को एक विशेष स्थान पर स्थापित किया गया. विधि विधान पूर्वक पूजा अर्चना कर इस रस्म कि अदायगी के साथ ही रथ निर्माण के लिए माई दंतेश्वरी से आज्ञा ली गई. इस मौके पर जनप्रतिनिधियों सहित स्थानीय लोग भी बडी संख्या मे मौजुद रहे इस रस्म के साथ ही विश्व प्रसिध्द दशहरा रथ के निर्माण कि प्रक्रिया आरम्भ करने के लिए लकड़ियों का लाना शुरू हो जाता है। वही बस्तर सांसद ने ये अपील की है कि पिछले 2 साल से कोविड की वजह से भीड़ को नियंत्रण कर के दशहरा संपन्न करवाया जा रहा है, उनका कहना है कि इस वर्ष भी खतरा टला नही है तीसरी लहर की आने की संभावना बनी हुई है, इस लिए इस वर्ष भी भीड़ को नियंत्रण करते हुए सभी रश्मो को निभाते हुए दशहरा सम्पन्न करवाया जाएगा।
जगदलपुर के सिरासार भवन मे आज दशहरा पर्व की दूसरी बड़ी रस्म डेरी गड़ाई की अदायगी कि गई. रियासत काल से चली आ रही इस रस्म में परम्परानुसार डेरी गड़ाई के लिए बिरिंगपाल गाँव से सरई पेड़ कि टहनियां लाई जाती हैं. इन टहनियों को पूजा कर पवित्र करने के पश्चात लकड़ियों को गाड़ने के लिए बनाये गए गड्ढों में अंडा व् जीवित मछलियाँ डाली जाती हैं. जिसके बाद टहनियों को गा़ड़ कर इस रस्म को पूरा किया जाता है इसके साथ ही माई दंतेश्वरी से विश्व प्रस्सिद्ध दशहरा रथ के निर्माण प्रक्रिया को आरम्भ करने कि इजाजत ली जाती है. मान्यताओ के अनुसार इस रस्म के बाद से ही बस्तर दशहरे के लिए रथ निर्माण का कार्य शुरू किया जाता है. करीब 700 वर्ष पुरानी इस परंपरा का निर्वाह आज भी पूर्ण विधि विधान के साथ किया जा रहा है।
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रियासत काल से चली आ रही बस्तर दशहरा कि इन परम्पराओं का निर्वाह आज भी बखूभी किया जा रहा है. डेरी गड़ाई कि इस रस्म कि अदायगी के बाद परम्परानुसार माचकोट जंगलों से लाई गई लकड़ियों से रथ निर्माण का कार्य प्रारम्भ होगा। माई दंतेश्वरी के मुख्य पुजारी के अनुसार दशहरा पर्व 75 दिनों तक चलने वाला एक मात्र पर्व है और इसकी सभी रस्मे महत्वपूर्ण हैं। और अब डेरी गड़ाई के बाद काछनगादी की रस्म निभाई जाएगी जिसमे मिरगान जाती की नाबालिक बच्ची पर काछन देवी सवार होती हैं। बस्तर के राजा देवी से दशहरा पर्व मनाने की अनुमति लेते हैं जिससे बस्तर का यह पर्व निर्बाध्य रूप से मनाया जा सके।